गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 12
तो बोले ठीक है हम आकाश में अच्छे-अच्छे शब्द बोलकर, वायु में सुगन्ध फैलाकर, अग्नि में हवन करके, जल में पवित्र वस्तुएँ डालकर, पृथ्वी को स्वच्छ रखकर इन सबके रूप में भगवान की पूजा करेंगे। परन्तु अपने रूप में जो परमेश्वर है, उसकी पूजा कैसे? तो इसका उत्तर मिला कि अपने को भी कष्ट मत दो- ‘भोगैरात्मानमात्मनि’ - अपने हृदय में भगवान की पूजा ऐसे करो कि जैसे बाहर ईश्वर को भोग लगाते हो, वैसे भीतर वाले ईश्वर को भी भोग लगाओ। उसको भी जल दो, अच्छा रूप दो, अच्छे शब्द दो, स्पर्श दो, अच्छा भाव दो। पूजा करने के लिए ईश्वर केवल बाहर ही नहीं होता, भीतर भी होता है। अपने ठीक ढंग से रख कर ईश्वर की पूजा करनी चाहिए। जो लोग अपने को तकलीफ देते हैं, उनकी निन्दा तो गीता में आप पढ़ते ही है- कर्षयन्त शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। हमारे शरीर में परमेश्वर होता है। जब हम शरीर को तकलीफ देने लगते हैं तो हृदय में रहने वाले परमेश्वर को तकलीफ देते हैं। तब पुजा की पद्धति क्या है? आप सर्वधर्म-सम्मेलन कर लीजिये और उसमें उस धर्म समान हैं, इसकी खूब प्रेम से चर्चा कर लीजिये। सब धर्मों में उत्तम-उत्तम बातें है और वे मनुष्य-जीवन का निर्माण करती हैं, परन्तु हमारे वैदिक धर्म में जहाँ चह चर्चा है कि ईश्वर की पूजा कैसे करना वहाँ यह कहते हैं चूँकि सब ईश्वर है, सब का अन्तर्यामी ईश्वर है, सबसे परे ईश्वर है और अपनी आत्मा ही ईश्वर है- इसलिए ईश्वर की पूजा करते समय यह ध्यान रखो कि किस ईश्वर की पूजा कर रहे हो? सर्वात्मा ईश्वर की पूजा कर रहे हो तो एक चिड़िया का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए, चींटी का भी तिरस्कार नहीं करना चाहिए। जिसका तिरस्कार होता है उसका अहित नहीं होता, जिस शरीर से तिरस्कार की भावना निकलती है, उसका अहित होता है। इसलिए अपने को ठीक-ठीक रखना ही, अपने सत्कर्म, सद्भाव से, सद्विचार से सम्पन्न रखना ही ईश्वर की पूजा है। हमारा ईश्वर केवल वैकुण्ठ में ही नहीं, धरती पर भी है। केवल निराकार ही नहीं आकार भी वही है। वह सर्व है, सर्वान्तर्यामी है, सर्वातीत है, अद्वितीय है, अपने आत्मा से अभिन्न है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 17.6
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