गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 9
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। भगवान ने कहा कि जो भगवत्-भाव को नहीं जानते हैं और अन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं - हृदय में श्रद्धा भी हो - वे आराधना तो मेरी ही करते हैं, परन्तु वे विधि को नहीं जानते हैं। मर्यादा के अनुसार हमारी आराधना नहीं करते हैं। कल श्लोक आपको सुनाया था - ‘येऽप्यन्यदेवता-भक्ताः’ अगले श्लोक में कहते हैं - ‘अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च’। जिनती भी आराधना होती है उसको पानेवाला भी मैं हूँ, भोगने वाला भी मैं हूँ और उसका प्रेरक भी मैं हूँ। परन्तु करने वाले मुझे पहचानते नहीं, इसलिए च्युत हो जाते हैं। आप भगवान की बात समझने के लिए पहले अपने को समझ लें। जैसे कोई आदमी है। वह आपका कार्यकर्ता है। वह बहुत बढ़िया है। अपने सभी काम करता है। उसे दी आँख की सेवा। वह ध्यान रखता है कि हमारी आँख अच्छी रहे, स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे, उसमें दोष निवारक औषधि डालता है, उसमें गुणवर्धक औषधि डालता है, लेकिन अन्य अंगों की उपेक्षा कर दी। आपका जो एक मालिक है, वह केवल आँख वाला ही नहीं है, उसके जीभ भी है, उसके कान भी हैं, उसके हाथ भी है, उसके पाँव भी है। एक इन्द्रिय का यदि हम ठीक रखने की कोशिश करें और दूसरी इन्द्रियों को भूल जायँ और मालिक को समझें ही नहीं और डाक्टर हमारा एक रोग देखकर ऐसी दवा दे दे कि उसकी जो प्रतिक्रिया हो वह शरीर में दूसरा रोग पैदा कर दे। एक रोग की दवा करे, एक अंग को पुष्ट करे और दूसरे को कमज़ोर बना दे तो इसमें मालिक पर नजर नहीं है केवल अंग पर ही नजर है। क्योंकि मालिक के दोनों अंग हैं। जो एक-एक देवता की आराधना करने वाले हैं वे सब देवताओं के जो मालिक हैं भगवान हैं, उनकी सेवा, उनके सुख पर ध्यान नहीं रखते हैं, वे तो अपने सही-असली मालिक के विरुद्ध ही काम कर बैठते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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