गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 6
जैसा कि पहले एक या अनेक बार कहा जा चुका है, यदि भगवान अपने शरणागत का मनोरथ पूरा न करें तो उनकी भक्ति कोई क्यों करेगा? भक्ति में भगवान भक्त का पक्षपात अवश्य करते हैं। सबके प्रति सम होते हैं, किन्तु भक्त के प्रति पक्षपाती होते हैं। यही ईश्वर की ईश्वरता है। भगवान कृपा करके कर्म करने की प्रेरणा दे रहे हैं। यदि कोई कहे कि जो महात्मा योगी अथवा संन्यासी हैं उन्हें कर्म करने की आवश्यकता नहीं, तो यह ठीक नहीं। गीता के अनुसार बड़े-बड़े योगी लोग भी कर्म करते हैं- ‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति।’ संसारी लोग, साधक लोग तो कर्म करते ही हैं, योगी लोग भी कर्म करते हैं- ‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति।’ संसारी लोग, साधक लोग तो कर्म करते ही हैं, योगी लोग भी कर्म करते हैं। किन्तु योगियों के कर्म आत्मशुद्धि के लिए होते हैं। देखिये, स्नान का मन तो पशु-पक्षियों का भी होता है। काम जो किया जाता है, वह शरीर में कालिख लगाने के लिए नहीं, छुड़ाने के लिए होता है। शरीर में कालिख लगायी नहीं जाती, लग जाती है और जब लग जाती है तो उसको छुड़ाने के लिए मनुष्य को कर्म करना पड़ता है। हमारे जीवन में जो मलिनता लग गयी है उसको दूर करने के लिए कर्म करने की आवश्यकता होती है। इसलिए कर्म का संकल्प आत्मशुद्धि होना चाहिए। अपने आपकी, आत्मा की शुद्धि के लिए कर्म करना चाहिए। शरीर में मैल लगा हो तो उसको छुड़ाने के लिए थोड़ी मैल और लगा लेते हैं। यह जो मैल धोने के लिए साबुन लगाया जाता है वह मैल ही तो है। परन्तु साबुन की मैल ऐसी है जो पहले की लगी मैल खींच लेती है और फिर धो देने पर दोनों मैं एक साथ छूट जाती है। इसी तरह कर्म किया जाता है आत्म-शुद्धि के लिए- ‘आत्मशुद्धिये कर्म कुर्वन्ति।’ हमारे पास बहुत-से लोग ऐसे आते हैं जो कहते हैं- स्वामीजी! हमें ईश्वर का दर्शन हो जायें। कुछ ऐसे भी मिलते हैं जो कहते हैं कि समाधि लग जाये। संसार के भोग चाहने वाले तो बहुत आते हैं। लेकिन कोई यह प्रार्थना नहीं करता कि हमारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाये। ऐसा चाहने वाला साल भर में शायद ही कोई आता हो। मनुष्य को अपने जीवन में जो मलिनता है वह खटकती नहीं। जब जीवन की मलिनता अपने आपको खटकने लगेगी और उसको शुद्ध करने की इच्छा होगी, तभी हम ठीक-ठीक कर्म कर सकेंगे। प्रश्न यह है कि आप किसके लिए कर्म करते हैं? शरीर के कर्म के लिए मन के कर्म के लिए, अथवा बुद्धि के कर्म के लिए? ये सब कर्म ही हैं। इसी से कर्मयोगी लोग कहते हैं कि वेदान्ती जो विचार करते हैं, बुद्धि से सोचते हैं वह भी तो एक प्रकार का कर्म ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज