गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 3
पहली बात तो यह है कि अश्वत्थ माने पीपल के पेड़ के दो विशेषण दिये गये हैं। उनमें-से ऊर्ध्वमूलं जो है, उसके साथ अव्ययं और अधःशाखं के साथ अश्वत्थ। अभिप्राय यह हुआ कि जो इस संसार वृक्ष का मूल है, वह तो अव्यय है और जो इसकी शाखाएँ हैं - अधः शाखं - वह अश्वत्थ है - कल तक रहने वाली नहीं हैं। इसलिए अश्वत्थ और अव्यय दोनों की व्याख्या मूल से ही निकल आती है। उसके लिए टीका-टिप्पणी में जाने की जरूरत नहीं है। अब ऊर्ध्वमूलं का क्या अर्थ है? यह आगे जाकर प्रकट होता है। आदि पुरुष शब्द का प्रयोग होगा तब आदि पुरुष ही ऊर्ध्व है यह बात निकलेगी। दूसरी बात इसमें यह है कि जहाँ तक ब्रह्माश्वत्थ है, ब्रह्मरूप वृक्ष है, वहाँ तक तो मूल ऊर्ध्व है, आदि ही अपना आत्मा है - लेकिन जब कर्मानुबन्धी संसार का विस्तार होने लगता है तो ऊपर और नीचे दोनों प्रकार ‘अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।’ मनुष्य-शरीर में आने पर पाप-पुण्य होने लगते हैं। यही सम्पूर्ण योनियों में श्रेष्ठ योनि है। पेड़-पौधे नीचे हैं -क्योंकि वे पाँव से खाते हैं और ऊपर को बढ़ते हैं और मनुष्य ऊपर खाता है और नीचे को जाता है और पशु-पक्षी तिर्यक् होते हैं। प्रकृति में प्राणी को जहाँ तक उन्नत शरीर की प्राणि हो सकती है, वह मनुष्य है। मनुष्य से बड़ा और कोई शरीर सृष्टि में नहीं है। प्रकृति ने उसको इतना ऊँचा कर दिया, जिसके आगे वह स्वयं नहीं ले जा सकता। अब तो ऐसी जगह पहुँचा दिया है, जहाँ से जरा भी ऊपर को छलकें और परम सत्य को, परमात्मा को प्राप्त कर लें। इसलिए,जो मनुष्य-शरीर प्राप्त करके भी सत्य की खोज नहीं करते हैं, सत्य परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हैं, वे बड़े लाभ से वंचित हो जाते हैं। एक कला उद्भिज्ज माने वृक्ष लता आदि में है। और दो कला जूएँ-खटमल आदि में है जो कि श्वेदज हैं और तीन कला अण्डजों में है - पक्षियों में है और चार कला जरायुज पशुओं में और पाँच कला जरायुज मनुष्यों में। चेतना का विकास होता है। छठे में महापुरुष लोग होते हैं - छह और सात दो कला। पाँचवें में साधारण मनुष्य और छठे में ज्ञानी मनुष्य और सातवें में जीवन्मुक्त महापुरुष और सातवीं कला में तुरीयातीत का सम्पर्क, संस्पर्श होता रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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