गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 4
जब यह प्रश्न उपस्थित हो कि कर्म करें अथवा कर्म त्याग, तब मनुष्य को विवेक द्वारा जो धर्मानुकूल जान पड़े, उसका पालन करना चाहिए। जब कर्म करना धर्म प्रतीत हो तभी कर्म करना चाहिए और जब कर्म-त्याग धर्म का रूप धारण कर ले तब कर्मत्याग करना चाहिए। अपने जीवन में करना और छोड़ना दोनों चलते हैं। उसका पहला विवेक यह है कि जो कर्तव्य कर्म हैं, उन्हें करना चाहिए और त्यक्तव्य कर्म हैं, उनका त्याग करना चाहिए। करने और छोड़ने का अभ्यास प्रारम्भ से ही बना रहे तो अच्छा है। कोई कहे कि आओ विश्राम करें तो पहले श्रम कर लोगे तब न विश्राम करोगे। जो श्रम नहीं करेगा, उसको विश्राम भी नहीं मिलेगा। दिन भर लेटे रहें और रात को नींद लेना चाहें तो अच्छी नींद नहीं आवेगी। काम करके, परिश्रम करके सोने पर ही नींद अच्छी आती है। इसलिए पहले कर्म हो, फिर कर्मत्याग हो तो ठीक रहता है। कोई कहे कि दान करना धर्म है और केवल इसी बात को पकड़कर बैठ जाये, कमाई न करे तो जिसके पास होगा नहीं वह दान कहाँ से करेगा? होगा तभी, जब वह परिश्रमपूर्वक उपार्जन करेगा। दान करना उसी का धर्म होता है, जो पहले पैदा कर लेता है। ‘दान करना धर्म है’- यह वाक्य ही इस बात को सूचित करता है कि उपार्जन करना पहला धर्म है। उपर्जन करेंगे तो जीविका चलेगी और जो अधिक होगा उसका दान करेंगे। जितनी ही अधिक बचत होगी उतना ही अधिक दान करेंगे। इसलिए जैसे दान करने के पहले उपार्जन आवश्यक है, वैसे ही कर्म-त्याग के पूर्व कर्म करना अनिवार्य है। जिसके पास कर्म की पूँजी नहीं, वह कर्म का त्याग अथवा कर्म का दान कहाँ से करेगा? दोनों में विवेक की आवश्यकता होती है। विचार छोड़कर कोई साधन नहीं होता। अभी हम लोग कह रहे थे कि इस वर्ष ईश्वर खूब वर्षा कर रहा है। तो, जिस प्रकार ईश्वर अपना काम कर रहा है, उसी प्रकार आओ हम लोग भी अपना काम करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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