गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 8
प्रश्न: कल परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज ने बीसवें एवं इक्कीसवें श्लोक में सम्बन्धित प्रश्नों के बड़े ही बोधगम्य उत्तर दिये। और हमारा मार्ग प्रशस्त किया। अब सिर्फ तीन दिन बाकी हैं। और विवेचन के लिए छः श्लोक बाकी हैं। इन छः श्लोकों के मुख्य केन्द्र विषय हैं - गुणातीत के लक्षण और स्थिति में पहुँचने के साधन, अव्यभिचारिणी भक्ति, ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहं’ श्लोक आदि। इनके बारे में अब हम प्रश्न के रूप में अपनी जिज्ञासाएँ नहीं उपस्थित करना चाहते। यूँ स्वामीजी महाराज के विवेचन में सभी सम्भव प्रश्नों, जिज्ञासाओं के उत्तर समाहित रहते ही हैं। बल्कि अन्य प्रश्नों का भी बहुत कुछ रहता है। पू. स्वामीजी महाराज से निवेदन है कि चौदहवें अध्याय के उपसंहार के इन श्लोकों में निहित तत्त्वों के विवेचन, निरूपण रूप का शुभारम्भ करें। प्रणाम! उत्तर: स्थितप्रज्ञ, भक्त, गुणातीत, जिज्ञासु एवं तत्त्वज्ञानी इन सबके लक्षण स्थान-स्थान पर गीता में आये हैं। दूसरे अध्याय में सत्पुरुष का वर्णन स्थितप्रज्ञ के नाम से किया गया है। उनकी बुद्धि स्थित होती है, डावाँडोल बुद्धि वाला मनुष्य सत्पुरुष नहीं हो सकता। आज कुछ, कल कुछ, परसों कुछ - किसी बात पर स्थिर न रहे। किसी निश्चय पर स्थिर न रहे। तो प्रज्ञा होनी चाहिए स्थिर - माने सत्पुरुष होने के लिए दृढ़निश्चयी, स्थिरनिश्चयी होना आवश्यक हैं बुद्धि आपकी स्थिर है, निश्चय स्थिर है, परन्तु आपकी प्रीति कहीं डावाँडोल हो जाय तो! आज इसके पक्ष में हो गयी, कल उसके पक्ष में हो गयी। तो अपनी आसक्ति प्रीति के अनुसार बदलते रहेंगे। स्थित प्रज्ञ में जहाँ बुद्धि की स्थिरता है, वहाँ भक्त में आसक्ति की स्थिरता है, प्रीति की स्थिरता है। यदि प्रीति स्थिर नहीं होगी, तो मनुष्य गृह-पशु के समान द्वार-द्वार पर भटकेगा। सिर पर बोझ लिये वैसे, फिर भी यह मूढ़ मनुष्य मानेगा नहीं, वहाँ-वहाँ भटकेगा! अपने स्वरूप का या कर्तव्य का दृढ़निश्चय और प्रीति भगवान से होनी चाहिए जिज्ञासु के जीवन में सद्गुण चाहिए - तेरहवें अध्याय में - अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 13.7
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