गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 3
अक्षर अव्यक्त की उपासना देहभिमानी के लिए अत्यन्त कठिन है। अब सबके लिए जो सुगम है उस साधना का वर्णन करते हैं। हम लोगों को तो यह भी कठिन भासती है। पर भगवान ने अव्यक्त अक्षर को अलग करके तब इसका वर्णन किया है। ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। एक ‘तु’ तो वे थे। और अब ये दूसरे ‘तु’ प्रारम्भ हो रहे हैं। ‘तु’ और ‘अपि’ की भी एक कथा प्रसिद्ध है। मीमांसकों में प्रभाकर गुरु नामके बड़े विद्वान् हुए हैं। कुमारिलभट्ट और प्रभाकर ये दो मत ही मीमांसा में चलते हैं। वे जब अपने गुरुजी से मीमांसा शास्त्र पढ़ रहे थे तो उसमें आया-‘तत्र तु नोक्तम् अत्रापि नोक्तम्’। तो गुरुजी तो ग्रन्थ देखते ही रहे गये और समझ में न आवे कि यह क्या है? पहले एक में मिलाकर ही अक्षर लिखे जाते थे। तो गुरुजी बोलकर गये कि अच्छा अभी नहीं-कल पढ़ावेंगे। जब गुरुजी चले गये तब प्रभाकर जी ने उनकी पुस्तक में ‘तत्र तुना उक्तम्’ ‘अत्र अपिना उक्तम्’ वहाँ ‘तु’ शब्द से जो बात कहीं गयी है वही यहाँ ‘अपि’ शब्द से कही गयी है। अक्षर अलग-अलग कर दिये। जब गुरुजी आये। देखा-बोले किसने किया? यही प्रभाकर ने। तो बोले भाई आज से तू शिष्य नहीं रहा-गुरु हो गया। प्रायः गुरु लोग ऐसे ही उदार होते थे। वासुदेव शास्त्री ने कोई गणित किया था-वे काशी में ज्योतिष के बहुत बड़े विद्वान् थे। उनके नाम पर अब उनकी शैली के पचांग निकलते हैं। उन्होंने गणित किया था तो अपने नीचे वाले अध्यापक को दिया कि तुम देख लो। अध्यापक ने कहा- आप इतने बड़े पण्डित, विद्वान् हम क्या देखेंगे इसको? प्रशंसा करके देने लग गये। उस समय सुधाकर जी उनके यहाँ पढ़ते थे। छोटे पण्डित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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