गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 7
एक महात्मा पुष्कर में थे- उन्होंने एक भजन बनाया था-
भगवान अकेले थे उनके मन में आयी कि होली खेलूँ तो एक से तो होली हो नहीं सकती। इसलिए उन्होंने अपने को बहुत रूपों में कर लिया। जैसे कौसल्याजी के महल में दो रूप में प्रकट हो गये। और फिर विराट्-रूप में प्रकट हो गये। जैसे खरदूषण से युद्ध करते समय भगवान रामचन्द्र- जितने खरदूषण, उतने ही रामचन्द्र। सबको लगे कि हमारे सामने हमको बाण मार रहे हैं। ये बहु भवन-सामर्थ्य, भगवान में हैं। यही उनकी लीला है। कितना सुगम कर दिया। ईश्वर ने अपने को कि धरती में प्रवेश करके मैं तुमको अपनी गोद में लिये रहता हूँ अब आप इस बात का अनुभव करें कि मैं तो भगवान की गोद में हूँ। आनन्द से भर जायँ। जितना हम जल लेते हैं - चाहे वह गंगाजल हो, कूपजल हो, सरोवर का जल हो, वर्षा का जल हो- और औषधियों में-से-पत्ते को निचोड़कर चाहे जल निकालें, चाहे फल में-से रस निकालें, उसमें रस बनकर वही बैठे हैं। वही भगवान जब हमारी जीभ पर रस बनकर आते हैं, तब हम को स्वाद आता है। थोड़ा सावधान हो कर ध्यान दीजिय। बाहर की अग्नि के रूप में हैं, प्रज्जवलित हवन किया जाता है, सूर्य, चन्द्रमा के रूप में प्रकट हो प्रकाश देते हैं और हमारे हृदय में, शरीर में बैठ करके पाचन क्रिया करते हैं। वही साँय के रूप में आते हैं वही साँस के रूप में जाते हैं। प्राण और अपान की सन्धि में बैठकर दोनों को अलग-अलग करते हैं माने ईश्वर कहीं हमसे दूसर नहीं है। केवल ख्याल की ही कमी है। ईश्वर हमसे दूर नहीं है। एक छोटा बालक था। उन दिनों उसकी उम्र मुझसे छोटी थी-मैं बडा था। मैं जब उसके घर गया तो खूब प्रेम हो गया। बैठकर हम लोग घण्टों बात-चीत करें। समय का फेर। वह पढ़ने लगा और मैं कभी उसके घर गया नहीं। चिट्ठी पत्री होती रही। जब वह बी. ए. या एम. ए. में पढ़ रहा था- प्रयागराज में, तब मैं एक एक उसके होस्टल के कमरे में पहुँच गया- उसने हम को पहचाना नहीं और मैंने उसके घर की कुशल-मंगल पूछी- उसकी माँ की, भाभी की, बहन की- उसको यह तो मालूम पड़ गया- हमारे कोई अन्तरंग व्यक्ति हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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