गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 8
भगवान के गुणों का जितना वर्णन आता है, उनमें भक्तों ने यह निश्चय किया है कि करुणा ही सर्वश्रेष्ठ गुण है। मुख्यं तु तस्य कारुण्यम्।[1] यह शाण्डिल्य भक्ति-दर्शन सूत्र है। करुणा ही भगवान के गुणों में मुख्य है। गुणों में परस्पर विरोध भी कभी होता है। कभी दया आती है, कभी असंगता आती है, कभी स्नेह होता है। कभी स्वरूप-स्थिति हो जाती है। भगवान यह सब काम क्यों करते हैं? क्यों आते हैं? उन्होंने बताया कि सृष्टि तो बीज-वृक्ष न्याय से अनादि ही है। आज तक कोई यह निश्चय नहीं कर सका कि पहले बीज कि पहले वृक्ष। पहले भी जीव था, प्रलय हो गया तो सो गया फिर सृष्टि हुई तो जाग गया। भगवान यह सृष्टि क्यों बनाते हैं? करुणावश। जीव सोता न रहे। अपने धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूप पुरुषार्थ की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे। इसके लिए सोते हुए को जगाते हैं। बुद्धि देते हैं, संकल्प देते हैं, इन्द्रिय देते हैं। शरीर देते हैं कि वह अपने पूर्व-पूर्व संकल्प के अनुसार पौरुष करे। जीवों पर करुणा करके ही भगवान यह सृष्टि बनाते हैं। फिर यह हुआ कि वे प्रकट क्यों होते हैं? प्रकट भी करूणा करके ही होते हैं। जब देखते हैं कि जीव अनात्म-वस्तु में अत्यन्त आसक्त हो गया, जिसको न तो वह भगवान के रूप में देख पाता है और न तो अपनी आत्मा से अभिन्न देख पाता है, उस वस्तु के पराधीन होकर संसार में जब भटकने लगता है तो करुणा करके भगवान अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। उनमें एक रूप वामन है। यहाँ जो विभूति का वर्णन है ‘आदित्यानामहं विष्णुः’ वह वामन का ही नाम यहाँ विष्णु है। केवल संकेत रूप में आपको सुनाता हूँ। वेद में मन्त्र है-‘वामनो ह विष्णुरास’।[2] जो वामन है वहीं विष्णु हो गया। माने पहले बलि के यज्ञ में नन्हें-से वामन के रूप में आये थे और फिर विराट रूप धारण करके उसने बलि का सर्वस्व नाप लिया। ‘आदित्यानामहं विष्णुः’। अदिति के पुत्रों में मैं विष्णु हूँ माने अन्तिम पुत्र मैं वामन हूँ-इसका अर्थ यह होता है। इसमें यदि आप करुणा देखेंगे तो पहली बात तो यह लगती है कि भगवान अपने भक्त का पक्षपात करते हुए लगते हैं। भगवान अपना जितना शरीर प्रकट करते हैं, वह नित्य और पवित्र होता है। दिव्य और शाश्वत-माने हमेशा रहने वाला होता है। हमारे शरीर में भी वामन प्रकट हैं। उपनिषदों में इसका वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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