गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 8
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्। ‘तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायम्’ शरीर भी संयम में होना चाहिए, प्रणिधाय कायम् प्रणाम करे किसी की और देखे किसी की ओर-पाँव पटकता है तो यह अशिष्ट प्रणाम हो जायगा। ‘कायं प्रणिधाय’। शरीर को पूर्ण रूप से संयम करके। और प्रणम्य-अहंकार को आपके सामने झुकाकर-प्रणाम का अर्थ होता है जिसको हम प्रणाम करते हैं उसको अपने से श्रेष्ठ मानते हैं। अपनी अपेक्षा दूसरे की श्रेष्ठता का सूचक जो क्रियाकलाप है, उसको प्रणाम कहते हैं-अपने अपकर्ष का ज्ञापक जो व्यापार है, वह प्रणाम है। कहीं-कहीं व्यंग्य से बोले की महाराज, आपको दूर ही से प्रणाम है। वह दूसरी बात है। प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्। आपको मैं प्रसन्न करना चाहता हूँ। प्रसन्न करना चाहता हूँ-माने मानना चाहता हूँ। जब पत्नी रूठती हैं तो पति उसका प्रसादन करता है। प्रसादन माने-मान किया है, किसी कारण से उसने अपना अपमान समझा है, उसको प्रसन्न करने की प्रक्रिया। क्यों प्रसन्न करना चाहते हैं? बोले ईशम्-ईडयम्-ईडयम् आप जगत के नियन्ता हैं और ईडय हैं माने स्तुत्य हैं। वेदों में आपकी स्तुति आती है और वेदों में, परमेश्वर के रूप में आपका वर्णन आता है, ऐसे परमेश्वर के साथ मैंने धृष्टता का व्यवहार किया। इसलिए आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। प्रसन्न करने में तीन बात कहीं है-कल मैंने दो-की व्याख्या की थी। आज तीनों की सुना देंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.44.42
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