गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 6
भगवान श्रीकृष्ण ने यज्ञ रखा बीच में। एक और परमार्थ तथा दूसरी ओर व्यवहार को प्रतिष्ठित किया। शरीर-निर्माण के निर्वाहक तत्त्व हैं भूत और उनका निर्वाहक तत्त्व है अन्न। मिट्टी, पानी, आग में भोक्ता की जो शक्ति है वह पर्जन्य है। सम्पूर्ण विश्व का भोक्ता एक होता है। जीव-दृष्टि से आत्मा सबका भोक्ता है और सबके रूप में है। विश्व-दृष्टि से परमेश्वर सबका भोक्ता है। सबका भोग ईश्वर कर रहा है- यह विश्वास है और सबका भोग आत्मदेव कर रहे हैं- यह अनुभूति है। ईश्वर के सम्बन्ध में हम जितना सोचते हैं- यदि विश्वास नहीं होगा तो उसका पूरा पड़ना कठिन हो जायेगा। अपने बारे में हम जितना सोचते हैं, उतना सब-का-सब अनुभावारूढ़ होना चाहिए, केवल कल्पना नहीं। अनुभव की दिशा है आत्मा और विश्वास का गन्तव्य है परमात्मा। एक बात देखो। दृष्टिकोण का भी फर्क हो जाता है। दुनिया को यदि केवल मशीनों से नापा जाये तो जड़ता-ही-जड़ता मिलेगी, क्योंकि मशीन की नोंक पर जड़ आता है, चेतन कभी आता ही नहीं। साइन्स सारा-का-सारा मशीन की नोंक पर चलता है। इसलिए उसको जड़, मैटर-मृत्ति का आदि के सिवाय दूसरी कोई वस्तु मिलने वाली नहीं। जब केवल बुद्धि से सोचते हैं तब शून्य का बोध होता है, जब श्रद्धायुक्त बुद्धि से सोचते हैं तब ईश्वर प्राप्त होता है और जब अनुभूति के सम्मुख परमेश्वर को देखते हैं तब आत्मा एवं ब्रह्म की एकता मिलती है। हम कहाँ बैठे हैं और किस दृष्टिकोण से सृष्टि को तौल रहे हैं इसके कारण बहुत फर्क पड़ जाता है। आप किसी पत्थर के टुकड़े को यहाँ बैठकर तौलिये और फिर उसी को भारमुक्त वातावरण में तौलिये तो उसके वजन में फर्क पड़ेगा। इस तरह हम वस्तुओं के सम्बन्ध में जो नाप-तौल करते हैं, वह हमारे स्तर के अनुरूप हो जाता है। अनुभव के क्षेत्र में आत्मा का बाध नहीं। यह बताया जा चुका है। कि हम लोग जो कर्म अथवा यज्ञ करते हैं, उसमें पहले शरीर है। शरीर के बाद भूत हैं, भूत के बाद भोक्ता है और भोक्ता के बाद यज्ञ बैठा हुआ है। फिर यज्ञ के बाद कर्म, कर्म के बाद ब्रह्म और ब्रह्म के बाद अक्षर है। तीन ऊपर और तीन नीचे के छह अरों वाले चक्र को चलाने वाला है यज्ञ। यदि आप स्वार्थ चाहते हैं तो भी यज्ञ कीजिए और परमार्थ चाहते हैं तो भी यज्ञ कीजिये। यज्ञ एक ओर आपके अन्तःकरण को शुद्ध करेगा और दूसरी ओर आपको मनचाहे फल देगा। यज्ञ को संसार की ओर लगायें तो मनचाहे फल मिलेंगे और निष्काम होकर करें तो अन्तःकरण शुद्ध होकर परमार्थ का साक्षात्कार होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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