गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 9
सर्वभूतानि सम्होहं सर्गे यान्ति परंतप। जब सर्वभूत-प्राणियों की सृष्टि होती है तब यह खेल प्रारम्भ हो जाता है। वह खेल क्या है? किसी की इच्छा होती है कि यह मिले, किसी से द्वेष होता है कि यह न मिले। यह इच्छा-द्वेष का चक्र-सर्ग के प्रारम्भ में ही होने लगता है। एक अद्भुत बात है-बालक पैदा होता है। उसके मन में दूध पीने की इच्छा आ जाती है। पशु के भी, मनुष्य के भी। हमने देखा, पशुओं के बच्चों को माताओं के स्तन के पास मुँह कीजिए तो अपने आप वे पकड़कर दूध पीने लगते हैं। कुत्तियाँ लेट जाती हैं और उसके बच्चे जिनकी आँख अभी तक खुली नहीं है-अपना मुँह इधर-उधर घुमाकर स्तन पकड़ लेते हैं और दूध पीना शुरू कर देती हैं। उनको कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं रहता। कोई पिलाने वाला नहीं होता है। उनके भीतर एक प्यास जम्न से ही होती है। बच्चा पैदा होता है, यदि न रोवे तो माताएँ उसे रुलाती हैं। चिकोटी काटती हैं और वह रोना शुरू कर देता है। माने चिकोटी काटना उसे पसन्द नहीं है। उससे द्वेष है। चिकोटी से द्वेष है और दूध से उसका राग है। इसका कारण क्या है? इसका कारण बताते हैं कि सृष्टि का चक्र ही ऐसा चल रहा है। पूर्व-पूर्व जन्म की वासना जीव के साथ रहती है। प्रकृति में प्यास और तृप्ति का चक्र चलता रहता है। माँ-बाप के संस्कार बच्चे में आते हैं। इससे किसी वस्तु की इच्छा होती है और किसी से द्वेष होता है। यही है संसार का द्वन्द्व। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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