गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 6
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन । ‘चतुर्विधा’-भक्तों की विधा चार है। किन्तु भक्ति सबमें अनुगत है। भगवान की भक्ति में रुचि किनकी होती है? येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्डकर्मणाम् । जो पुण्य करते हैं और पापों का अन्त हो गया है। जिसके मन में वासना होती है कि हमको यह मिले, यह मिले उनमें दो तरह के लोग होते हैं। एक तो जो पुण्यकर्म के द्वारा ही अपनी वासना को पूर्ण करना चाहते हैं और दूसरे वे होते हैं कि चाहे पाप भले करें पर हमारी वासना पूरी हो। चोरी से, बेईमानी से, छल से, कपट से, व्यभिचार से, अनाचार से वे अपनी वासना को पूरी करना चाहते हैं। उनका पाप अभी अन्तर्गत नहीं हुआ है, वे तो पाप में संलग्न हैं। उनकी वासना का ऐसा वेग है कि उसको कायदे से नहीं चला सकते। अपने शरीर को, मन को मर्यादा के अनुसार नहीं चला सकते। जिस देश की, जिस राष्ट्र की, जिस समाज की मर्यादा है, उसके अन्दर रहकर काम करना चाहिए। जब रास्ता छोड़कर मोटर चलाते हैं-उस समय वासना बहुत तीव्र होती है जब निश्चित वेग से अधिक मोटर चलाते हैं तो वेग की मर्यादा और मार्ग की मर्यादा, और मान लो ब्रेक न हो मोटर में और चला रहे हों तो क्रिया की मर्यादा भी भंग हुई। अपने पास चलाने का लाइसेंस नहीं है-और चलाते हैं। इन मर्यादाओं को भंग क्यों करते हैं? वासना का वेग तीव्र होने से। जैसे आप मोटर चलाने में मर्यादा-भंग करते हैं, वैसे पैसा कमाने में भी करेंगे, वैसे परस्त्री में भी करेंगे, क्रोध में भी करेंगे, क्योंकि एक जगह मर्यादा का न होना, सब जगह मर्यादा का न होने का उपलक्षण है, संकेत है। आपका मन जब वश में नहीं है तो पता नहीं कब क्या कर बैठेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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