गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 5
वही है-स्त्री है कि नहीं? परमात्मा है? पुरुष है? नहीं, वह परमात्मा ही है। आप श्रीकृष्ण की लीला पर ध्यान दें ऐसा कौन-सा रूप है जो कृष्ण का रूप नहीं है। माँ के पेटमें-से निकलता हुआ रूप है, बच्चे के रूप में रोता हुआ है। दूध पीता हुआ है, मिट्टी में लोटता हुआ है, मक्खन चुराता हुआ है। काजल लपेटे हुए है, छेड़छाड़ करता हुआ है। भागता हुआ है। कुब्जा के घर में है। कंस को मारता हुआ है। ईश्वर का रूप क्या है? यह मामूली बात नहीं है। यह बात आप सर्वधर्म-समत्व से नहीं जान सकते। क्योंकि जिनका ईश्वर सिर्फ निराकार है-साकार कभी हुआ ही नहीं, उनकी समझ में यह कैसे आवे? हमारा तो सर्वोपादान है-सर्वगत-वह एक बच्चा भी है, बूढ़ा भी है-स्त्री भी है, वही पुरुष भी है, वही सूअर भी है, वही मछली भी है, वही गधा भी है। यह सब परमेश्वर का रूप है। नित्ययुक्त, जहाँ है, जब है, जो है, जैसे देखता है, उसके रूप में परमेश्वर को देख रहा है। ‘एकभक्तिः’ उसके मन में जने-जने के प्रति प्रीति नहीं है, अखण्ड परमात्मा के स्वरूप में प्रीति है। प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः। अत्यर्थ शब्दपर ध्यान दें। ‘अत्यर्थ’ माने अर्थ अतिक्रम्य। हमारे और उसके बीच में दूसरा कोई अर्थ नहीं है। कोई प्रयोजन नहीं हैं, कोई वस्तु नहीं है। हम और वे बिलकुल एक हैं। हम दोनों को अलग करने वाला कोई नहीं है। जो ज्ञानी है सो मैं हूँ- जो मैं हूँ सा ज्ञानी है। भरतहिं मोहि कि अंतर काहू। राम और भरत में कहीं कोई फर्क होता है? राम भरत दोनों एक दूसरे के इष्ट हैं दोनों दोनों के आत्मा हैं। मैं ज्ञानी का अर्थरहित प्रेमी हूँ। परमप्रेमास्पद हूँ। हमारे बीच में कोई अर्थ, कोई वस्तु नहीं है। और स च मे प्रियः वह मेरा प्यारा है। एकभक्तिर्विशिष्यते ऐसा ज्ञानी है। एक भक्ति है और विशिष्ट है। तब और सब क्या हैं? और सब भी बहुत अच्छे हैं। उदाराः सर्व एवैते -उदीर्ण है-जो मैं मेरे के चक्कर में पड़ गया वह तो कृपण हो गया, कंजूस हो गया और जो परमात्मा की ओर देखने लगा-आर्त है, जिज्ञासु है, अर्थार्थी है। वह उदार है, उसकी दृष्टि उदीर्ण है। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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