गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 5
व्यापक दृष्टि जब प्रकट होती है-तब अहं टूटता है। कब टूटता है? जब सबको देखते हैं। जब सार्वजनिक, सामाजिक, सर्वात्म, भगवद्-दृष्टि होती है तब अहं का गजेन्द्र और इदंका ग्राह दोनों टूट जाते हैं। दोनों मुक्त हो जाते हैं। अभिमान के बदले में आर्ति आयी। आर्त हो गया। जिज्ञासु परीक्षित ने शुकदेव से कहा-‘मुझे परमात्मा का चरित्र सुनाइये। मुझे मौत से डर नहीं है-मौर आये शरीर को ले जाय। आप तो कृष्णचरित का, विष्णुचरित का गान कीजिए-जिज्ञासु हैं। अर्थार्थी-ध्रुव हैं। बोले हम लेंगे पर राजा से नहीं, भगवान से लेंगे। अपि कीटः पतंगो वा भवेयम्............। हमारा इष्टदेव कहे तो हम कीड़ा-फतिन्गा होने को तैयार हैं। ये लोग देखते हैं-यह पेड़ है और भावुक भक्त देखता है यह वासुदेव हैं। एक वैज्ञानिक पीपल के पेड़ को देखेगा-इसकी ऐसी लकड़ी है, ऐसा पत्ता है। इसमें ये-ये गुण हैं, ये-ये शक्तियाँ हैं। ये-ये दवाइयाँ हैं। यह हुआ वैज्ञानिक अनुसन्धान और एक भक्त कहेगा यह साक्षात् वासुदेव हैं। ज्ञानी कहेगा-जो आत्मा मेरी है वही इस पीपल की है। इस शरीर का जो अधिष्ठान और प्रकाशक है वहीं इस पीपल के पेड़ का भी अधिष्ठान और प्रकाशक है। जैसे यह शरीर वैसे ही यह पीपल और जैसी आत्मा मैं, वैसी आत्मा यह। एक ज्ञानी के लिए आत्मदृष्टि है, ब्रह्मदृष्टि। भक्त के लिए ईश्वरदृष्टि है। वैज्ञानिक के लिए गुणदृष्टि है, रूपदृष्टि है, नाम दृष्टि है। ज्ञान की दृष्टि आरपार हो जाती है- न देह में बँधती है न विषय में बँधती है। दोनों को आरपार करके एक ब्रह्म को देखती है। उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । भगवान ने कहा-यह ज्ञानी पुरुष क्या है? ज्ञानी च भरतर्षभ। तेषां ज्ञानी नित्युक्तः एक भक्तिः और सब अनित्युक्त हैं। वे कभी भगवान के पास रहते हैं और कभी भगवान से अलग हो जाते हैं। परन्तु ज्ञानी- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.18
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज