गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 3
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने ऐश्वररूप का दर्शन कराया। ऐश्वर माने ईश्वरीय रूप। जीव कर्मवश एक शरीर में आता है, बारम्बार मिन्न-भिन्न शरीर ग्रहण करता है। परन्तु ईश्वार सर्व शरीरी है। यह बात आप लोग दूसरे मजहबों की नजर से या दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करेंगे तो नहीं समझ सकेंगे। क्योंकि लोगों ने ईश्वर को प्रायः संसार का-जगत का निमित्त कारण माना है। ईसाई भी, मुसलमान, पारसी भी, आर्यसमाजी भी, ब्रह्मसमाजी भी और जितने द्वैतवादी हैं वे सब ऐसा मानते हैं कि जैसे कुम्हार माटी से घड़ा बनाता है या जुलाहा सूत से कपड़ा बुनता है, इसी प्रकार ईश्वर ने-कुम्हार की तरह, जुलाहे की तरह, किसी और उपादान से, परमाणु से यह सृष्टि बनायी। वैदिक धर्म का सिद्धान्त यह है कि विश्व के रूप में बनता भी भगवान ही है और बनाता भी भगवान ही है। वही माटी है औा वही कुम्हार है-उपादान कारण जिसको कहते हैं वह ईश्वर ही है, इस जगत का। इसलिए सूत से चाहे जैसे कपड़े बनें वे सब सूत-रूप ही हाते हैं। जैसे माटी से जितने रूप बनें वे सब माटी ही होते हैं-चाहे घड़ा हो, सकोरा हो या खपरैल हो। ऐसे ही ईश्वर से बनी हुई यह सृष्टि, ईश्वर-रूप ही है। यदि पाश्चात्य मजहबों की दृष्टि से इस सृष्टि को आप पहचानने की कोशिश करेंगे तो उपादान के रूप में ईश्वर को नहीं पहचान सकेगे। इसलिए जगत के रूप में भी ईश्वर को नहीं पहचान सकेंगे। तब राग-द्वेष की जो आत्यन्तिक निवृत्ति होनी चाहिए, वह कभी होगी ही नहीं। यह अच्छा है, वह बुरा है, यह उचित है, वह अनुचित है, किन्तु सम्पूर्ण जगत ईश्वर-रूप है, यह जो राग-द्वेष की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप स्थिति है वह नहीं मिल सकेगी। इसलिए अर्जुन को भगवान ने बताया है कि जैसे जीव का शरीर यह देह है- पशु के शरीर में जीव है, पक्षी के शरीर में जीव है, कीट-पतंग के शरीर में जीव है-जीवों के जैसे एक-एक शरीर होते हैं वैसे ही यह समग्र विश्व ईश्वर का शरीर है। आप भी अपने को देहधारी के रूप में मानते हैं परन्तु इस देह में कितने कीटाणु होते हैं-तो हमारे पूरे शरीर में कितने कीटाणु होगें और उनका शरीर कैसा-कैसा होगा और देह के रूप में वे सब मैं ही हूँ। अब समझ लो कि मेरे शरीर में एक कीटाणु ऐसा हो जो अर्जुन के रूप में हो और मैं कृष्ण के रूप में उसको अपना दर्शन कराऊँ तो मेरा सम्पूर्ण शरीर ही देवताओं से और जीवात्माओं से और पृथ्वी से, जल से, अग्नि से भरा हुआ भी इस कीटाणु को दिखेगा, और वह सब मेरा स्वरूप होगा। ठीक इसी प्रकार श्रीकृष्ण के शरीर में अर्जुन सब प्रकार के जीवों को और अजीवों को भी सचराचर विश्व को श्रीकृष्ण के रूप में ही देख रहा है। विराट् विश्व के रूप में श्रीकृष्ण को ही देख रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज