गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । जैसा कि कल भी बताया गया भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप प्रिय की प्राप्ति करके अत्यन्त हर्षित और अप्रिय की प्राप्ति करके अत्यन्त उद्विग्न न हों। इसमें एक बात पर आप ध्यान दीजिए। वह यह है कि प्रिय और अप्रिय प्राप्ति को मना नहीं किया गया, केवल हर्ष और उद्वेग को मना किया गया है। सत्पुरुष अथवा श्रेष्ठ पुरुष की जो पहचान बतायी गयी है, उसमें यह नहीं कहा गया कि उसके जीवन में प्रिय-अप्रिय नहीं आते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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