गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 4
भगवान की ओर चलने के लिए, संसार से लगाव कम होना चाहिए। काम सब करें पर लगाव भगवान के साथ रखें। जैसे कोई मुनीम सेठ के यहाँ काम करता है, तो उसको आश्रय तो सेठ का है, लेकिन उसका प्रेम अपनी पत्नी से, अपने पुत्र से, अपने घर से रहता है। परन्तु भक्त जब भगवान की भक्ति करता है, तो उसको आश्रय तो सेठ का है, लेकिन उसका प्रेम अपनी पत्नी से, अपने पुत्र से, अपने घर से रहता है। परन्तु भक्त जब भगवान की भक्ति करता है, तो उसके आश्रय भी भगवान हैं और प्रेमास्पद भी भगवान हैं। मुनीम का मन दो जगह बंटा हुआ है। एक मालिक की सेवा करने में और एक अपने शरीर और शरीर के सम्बन्धियों के पालन-पोषण में। भक्त जो है वह मुनीम नहीं है। परिवार के लिए सेठ का जैसा आश्रय मुनीम ने लिया है वैसे नहीं; यह तो भगवान से शुद्ध प्रेम करता है। आप जानते हैं हमारे ब्रिटिश सरकार के एक सदस्य ने, एक स्त्री से प्रेम किया और उसके लिए उसने इतना बड़ा साम्राज्य अस्वीकार कर दिया। सम्राट पद को अस्वीकार किया और स्त्री को प्राप्त किया। भगवत्-प्राप्ति की लालसा जो मन में होती है वह ऐसी होनी चाहिए कि एक लालसा बन जाय। बम्बई में एक लड़की थी वह संगीत सीखने के लिए किसी के पास जाया करती थी। बड़े नामी गायक थे। लड़की को हो गया उनसे प्रेम - वह 19 वर्ष की और सिखाने वाले चालीस वर्ष के। घरवालों को कुछ पता नहीं था। जब एक दिन उसने घोषणा की कि हम तो उसके साथ विवाह करेंगे, चली गयी उनके घर, फिर पंचायत हुई। बड़े-बड़े लोग इकट्ठे हुए। उसके माँ, बाप, दादा, दादी रोये। मेरे पास भी आकर रोये। लड़की से पंचायत में पूछा गया कि तुम क्या पसन्द करती हो अपने माँ, बाप, दादा, दादी, भाई, बन्धुओं को या उस प्रेमास्पद को? उसने जहाँ बैठी थी वहाँ से उठकर उस व्यक्ति का हाथ पकड़ लिया और बगल में जाकर बैठ गयी कि मैं तो इनको चाहती हूँ। भगवत्-प्राप्ति के लिए मन में होनी चाहिए एक लालसा और व्यवहार में सबसे होनी चाहिए असंगता। संग - आसक्ति केवल भगवान से चाहिए। घूमो फिरो, आओ, जाओ, मिलो, जुलो और अन्त में आकर भगवान के पास बैठ जाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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