गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 2
पाणिनीय व्याकरण की दृष्टि से अर्जुन शब्द का अर्थ होता है = अर्जन करने वाला - उपार्जन करने वाला। जैसे आप लोग धनार्जन करते हैं - अर्जन का अर्जुन हो गया है। धनन्जय का पर्यायवाची है अर्जुन। ज्ञानार्जन में भी उसका अर्थ संगत हो जाता है। ज्ञानोपार्जन में बड़ निपुण है। जैसे व्यापारी धन-उपार्जन में निपुण होता है, वैसे अर्जुन ज्ञानोपार्जन में निपुण है। ‘अर्जनात् अर्जुनः’। दूसरा अर्थ होता है जो सीधा-सादा सरल स्वाभाव का है उसको अर्जुन कहते हैं। इस प्रसंग में अर्जुन ने श्रीकृष्ण के अनेक सम्बोधन दिये हैं - सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव । अर्जुन का कहना है कि जो कुछ आपके बारे में ऋषियों ने कहा है, मन्त्रों ने कहा है, वेदों ने कहा है, देवर्षि नारद ने कहा - असित-देवल ने कहा, व्यास ने कहा - सर्वमेतदूतं मन्ये। मैं सबको सत्य मानता हूँ। सब चीज ठीक है। हमारे मन में कोई शंका नहीं है। श्रद्धा है, आत्मबल - निर्बलता नाम श्रद्धा नहीं है, एक अदृष्ट पदार्थ जिसका हमको साक्षात्कार नहीं हुआ है, और जिसको मान करके अपने जीवन का संचालन करना है - यह बिना दृढ़ आत्मबल के नहीं हो सकता। इसलिए श्रद्धा करना, जो आत्मबल से दरिद्र है, उनका काम नहीं है। आत्मबल के जो धनी हैं उनका काम है कि वे अदृश्य-अदृष्ट पर श्रद्धा करें। न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः। आपकी जो व्यक्ति है उसके स्वरूप को देवता-दानव कोई नहीं जानते। क्योंकि न तो बल से जान सकते हैं, न तो इन्द्रियों से जान सकते हैं। यहाँ दोनों का निषेध हो गया। देवता प्रज्ञा से जानते हैं। और दानव प्राण से, बल से जानते हैं। कम्प्यूटर से किसी की गिनती कर लेना यह दूसरी बात है और लेबोरेटरी में गला के किसी वस्तु को जान लेना यह दूसरी बात हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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