गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
योऽन्त सुखोऽन्तरारामास्तथांतर्ज्योतिरेव य:। भगवान श्रीकृष्ण उस पुरुष का स्वरूप बताते हैं जिसे परमात्मा अनुभव होता है, ब्रह्मानुभूति होती है और जिसको शान्ति मिलती है। पहले श्लोक की पहली पंक्ति में तीन बातें हैं- ‘योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्त र्ज्यतिरेव यः’- आपका आराम, आपकी ज्योति और आपका सुख। ये तीनों कहाँ हैं? यदि आपका आराम बाहर है, दूसरी जगह है, दूसरे के हाथ में है, आप पराधीन हैं तो न स्वयं आराम में रह सकते हैं और न अन्य को आराम दे सकते हैं। जो धनी होता है वह तो दूसरे को दे सकता है, किन्तु जिसके पास है ही नहीं, वह दूसरे को कैसे दे सकेगा? अतः जिसके पास स्वयं का आराम नहीं, वह दूसरे को आराम देना तो दूर उद्विग्न ही करेगा। कोई छटपटाता रहे, खाँसता रहे, खटपट करता रहे और दूसरे से कहे कि आराम कीजिये, तो उसकी खटपट और खाँसने से दूसरे को आराम कैसे मिलेगा? दूसरे को आराम देने के लिए स्वयं आराम में रहना आवश्यक होता है। आराम का अर्थ है सत्ता, ज्योति का अर्थ है चित् सुख का अर्थ है आनन्द और अन्तः का अर्थ है- आत्मा, प्रत्यगात्मा, अन्तरात्मा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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