गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
अम्ब त्वाम् अनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। अर्जुन ने बड़ी ही शालीनता और विनय के साथ अपनी इच्छा प्रकट की कि मैं आपका ऐश्वर-रूप देखना चाहता हूँ। उसने यह भी कहाकि यदि मैं इसको देखने की योग्यता रखता हूँ-तो मुझे इसका दर्शन कराइये। केवल हमारी इच्छा ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है, कि मैं कुछ चाहूँ और वह कर दिया जावे। उसके लिए मेरी योग्यता भी देख लीजिये। यदि हो तो दिखाइये और न हो तो मत दिखाइये। यह भी एक बोलने की शिष्ट शैली है। किसी से यह कहना कि आप यह काम कर दीजिये, उसके साथ-साथ यह भी कहना चाहिए कि यदि आप उचित समझें तो कर दीजिये। अपनी इच्छा दूसरे के ऊपर लादी नहीं जाती। भगवान के ऐश्वर-रूप का जो दर्शन है यह ईश्वर के रूप का है। ईश्वरीय रूप माने विश्व रूप। एक देहधारी व्यक्ति जो पंचभूतों के सम्मिश्रण से बना हुआ है, उसको ऐश्वर-रूप नहीं कहते हैं वह तो देवरूप है। जीवने पूर्व-पूर्व जन्म में जो कर्म किये हैं, उनकी जो संचित राशि है, उसमें-से प्रारब्ध के अनुरूप यह जो शरीर प्राप्त हुए हैं-पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता, दानव-वे तो प्रारब्ध-रूप हैं। देवरूप हैं। जीव के कर्मानुसार बने हुए रूप हैं। और ईश्वर का जो रूप है उसमें न संचित कर्म का लेश है, न प्रारब्ध का लेश है, न वहाँ कर्ता, कर्म का कोई सम्बन्ध है। ईश्वरीय-रूप तो स्वतः सिद्ध होता है। इसका निर्माण नहीं होता। उसका दर्शन होता है। दर्शन पूर्वसिद्ध वस्तु का होता है। जो वस्तु पहले से होती है, उसका दर्शन होता है। और जो बनायी जाती है वह तो कृतक होती है, कृत्रिम होती है, बनावटी होती है। अर्जुन ने ईश्वर से इसी रूप के दर्शन की प्रार्थना की। यह कल सुनाया था। अब आगे भगवान ने तुरन्त बोलना शुरू कर दिया। श्रीभगवानुवाच-माने आगे जो कुछ कहा जा रहा है वह भगवान की वाणी है भगवान के वचन है। यहाँ ‘उवाच’ में जो क्रिया पद है भूतार्थक है। उसका अर्थ यह नहीं कि कभी भगवान बोले थे। उसका अर्थ है, भगवान बोल रहे हैं। पहले भी बोले, अब भी बोल रहे हैं-आगे भी बोलेंगे। ये भगवान के वचन है, यह इसका अभिप्राय है। भगवान बोल रहे हैं-हम सबके सामने कह रहे हैं। हमेशा से कह रहे हैं। क्या कह रहे हैं, कि मुझे देखो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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