गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1 प्रपन्नपारिजाताय तोत्रवेत्रैकपाण्ये। वेद और गीता में एक अन्तर यह है कि वेद अपौरुषेय ज्ञान है ऋषि उनका दर्शन करते हैं। वेद मे वक्ता की प्रधानता नहीं होती, मन्त्र की प्रधानता होती है। एक ही विशेषता है वेद की और वह है उसके ज्ञान की विशेषता। उसमें न श्रोता की विशेषता है और न वक्त की। वह अद्वैत ज्ञान का सूचक है और स्वयं में अद्वैत है। गीता में ज्ञान की विशेषता तो वही है जो वेद में है। परन्तु उसमें उत्तम वक्ता और उत्तम श्रोता इन दोनों की विशेषता और बढ़ गयी है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण वक्ता हैं और भगवान के ही एक रूप अर्जुन श्रोता हैं। सत्त्वमेकं द्विधा स्थितम्- एक ही सत्ता, एक ही वस्तु नर- नारायण दोनों के रूप में स्थित है। रथ एक है शरीर, उसमें चेतन एक है ब्रह्म और वही एक रूप से वक्ता हो रहा है तथा दूसरे रूप से श्रोता हो रहा है। वही नारायण है और वही नर है। नर अर्जुन है तथा नारायण श्री कृष्ण। किसी-किसी का जीवन रथ काम के वश में हो जाता है और उसका सारथि काम बन जाता है। काम कहाँ रहता है? इन्द्रिय में रहता है, मन में रहता है बुद्धि में रहता है- इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानुच्यते। जब काम बुद्धि को, मन को, इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है, मनुष्य राम के चलाये नहीं चलता काम के चलाये चलने लगता है, तब उसकी प्रेरणा का स्रोत मलिन हो जाता है। जब हमारी बुद्धि का प्रेरक, मन का प्रेरक, इन्द्रियों का प्रेरक नारायण होता है, राम होता है, कृष्ण होता है, हम सचमुच धियो यो नः प्रचोदयात् से प्रेरणा ग्रहण करते हैं, अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम् ईश्वर हमारे भीतर रहकर हमें प्रेरणा प्रदान करता है, तब हम ठीक रास्ते से सन्मार्ग पर चलते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज