गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 5
मन और बुद्धि भगवान में स्थापित कर देने के बाद जीव भगवान में ही निवास करता है। अपना मन भगवान में स्थापित हो गया आधान हो गया। जैसे घर में, गाँव में कोठिला बनाते हैं और उसमें चावल, गेहूँ या धान-धान ही धान भर देते हैं- उसका नाम हो जाता है ‘आधान’। जैसे किसी पात्र को हीरे से भरके रख लें तो पात्र में हीरे का आधान हो गया। ऐसे ही अपने मन को भगवान के अन्दर रखकर सुरक्षित कर दिया जाय जाय और अपनी बुद्धि को भगवान में रखकर सुरक्षित कर दिया जाय तो यह हुआ आधान अथवा निवेशन। निवेशन का अर्थ प्रवेशण भी होता है और निवेशन को अर्थ सुला देना भी होता है। ‘जैसे सोवत सुख तुलसी भरोसे एक राम के।’ एक मात्र रामचन्द्र के भरोसे सो जाइये। निर्भरता चाहिए भगवान के ऊपर। इसका जो फल बताया- ‘निवशिष्यसि मय्येव’-उसके बल पर हमको मन को आधान और बुद्धि के निवेशन की बात सोचनी चाहिए। संस्कृत में एक रीति यह भी है कि ‘फल-बल-कल्प्य’ हो यह साधना का स्वरूप होता है, नतीजा क्या निकला? जैसा नतीजा निकलता है उसी के अनुरूप साधन होता है। ‘नतीजा-परिणति।’ अन्त में क्या निकला? अन्त में निकला भगवान में ही निवास। मरण में भगवान में निवास हुआ कि जिन्दा में ही निवास हुआ? कहते हैं कि मन, बुद्धि भगवान में गया और निवास भगवान में हुआ। हम लोग जीवन की चर्चा करते हैं। मरन के बाद की चर्चा तो मौलवी और पादरी और पुरोहितों की है। मरने के बाद का ठेका मजहबी आचार्यों का है। और फकीर जो है वे इसी जीवन में जो परमानन्द है उसकी चर्चा करते हैं। महात्मा लोग इसी जीवन में आपको सुखी बनाना चाहते हैं। इसी जीवन में परमानन्द देना चाहते हैं। अभी यहीं आप परमानन्द में स्थित हो जायँ तो आगे की तो कोई बात ही नहीं। इसी से कभी-कभी महात्माओं के सिद्धान्त में और मौलवियों में, पुरोहितों में, पादरियों में विरोध भी हो जाता है। वे बहुत विरोध करते हैं, सन्तों का, फकीरों का, अवधूतों का। इसी समय आप परमात्मा में विराजमान हो जायँ। माने अपने जीवन की अनन्तता का अनुभव करें। अपने ज्ञान की अनन्तता का अनुभव करें। अपने आनन्द की परिपूर्णता का अनुभव करें-इसी समय। यहाँ उधार सौदा नहीं है, बिलकुल नगद माल है। गीता में अर्जुन ने तो मरने के बाद की फ़िक्र की है-‘नरकेऽनियतं वासो भवति’[1] परन्तु श्रीकृष्ण ने मरने के बाद की कहीं भी फ़िक्र नहीं की हैं। सारी गीता इसी जीवन के लिए है और आपको ‘निवसिष्यसि मय्येव’- मुझ परमात्मा में स्थित होने के लिए-निवास करने के लिए है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.44
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