गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 2
ऊर्ध्व्मूलमध:शाखं अश्वत्थं प्राहुरवयम् । यह पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम-विज्ञान है। उत्तम पुरुष को पहचानने की प्रक्रिया है। अनुभव के क्षेत्र में उत्तम पुरुष अपनी आत्मा को ही कहते हैं। वह अन्य पुरुष हुआ, प्रथम पुरुष तुम, मध्यम पुरुष हुआ और मैं, उत्तम पुरुष हुआ। वह दूर है, तुम निकट है और में अपना आपा है। अन्य पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष अपने आत्मा का ही नाम होता है। पर आत्मा का साक्षात्कार करने में बाधा क्या है? हम अपने आत्मा से जो बाहर की वस्तुएँ हैं उनको पकड़ लेते हैं, उनमें हमारी आसक्ति हो जाती है, संग हो जाता है। यह जो बाहर संसार है, उसमें दो प्रकार हैं - एक का नाम है ब्रह्माश्वत्थ और दूसरे का नाम है कर्माश्वत्थ, ये दो विज्ञान यहाँ अश्वत्थ के रूप में है। अश्वतथ माने पीपल का पेड़ और कहीं-कहीं अश्वत्थ बड़ का भी नाम आता है। कम मिलता है; परन्तु कोषों में कहीं-कहीं अश्वत्थ का मतलब बट वृक्ष भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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