गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 9
भक्त के हृदय में कोई उद्वेग नहीं रहता है। उद्वेग, घबराहट-ऐसी हूल उठती है जैसे दिल कलेजे से बाहर हो जाय। हूल उठती है-भीतर का एक वेग जैसे कलेजे में-से निकलकर मुँह के रास्ते बाहर जाना चाहता है। हम तो जानते नहीं उस शब्द का अर्थ क्या होता है- आजकल लोग आकर कहते हैं कि उनको ‘डिप्रेशन’ हो गया। हम तो ‘डिप्रेशन’ का मतलब नहीं जानते हैं। भक्त यदि संसारी कारणों से उद्विग्न होगा, तो भगवान का विस्मरण तो हो ही जायगा-याद तो छूट ही जायगी, लेकिन हृदय में बैठे हुए भगवान की ओर पीठ भी हो जायेगी। भगवान का अपमान भी हो जायगा। इसलिए किसी भी कारण से अपने हृदय में उद्वेग नहीं आने देना चाहिए और न तो दूसरे को उद्विग्न करना चाहिए, क्योंकि फिर उसको भी भगवान भूल जायेंगे, विमुख हो जायगा भगवान से। उसके द्वारा भी भगवान का एक प्रकार से अपमान, तिरस्कार ही होगा। जब अपने घर में भगवान बैठे हों तो दूसरे कारण से हर्ष होना, उद्विग्न होना, डरना, चिढ़ना क्यों होगा? मालिक के सामने सावधान रहकर उसकी सेवा ही करनी चाहिए। यह बात मालूम होनी चाहिए कि हमारे हृदय में वह बैठा हुआ है, तब भगवान बहुत प्रेम करते हैं। देखो, दुनिया में यह आया, खुशी का काम आया और यह तो मुझको देख रहा है। उद्वेग का हेतु आया और यह तो मुझे देख रहा है। चिढ़ने का कारण उपस्थित हुआ, परन्तु यह तो मुझे देख रहा है। भय का कारण उपस्थित हुआ, परन्तु यह तो मुझे देख रहा है। हर्ष, अमर्ष, भय, उद्वेग से मुक्त होकर जो भगवद्भाव से भावित रहता है, भगवान उससे प्यार करते हैं। चाहते तो सभी हैं कि भगवान का प्रेम हमें प्राप्त हो, परन्तु भगवान से सेवा लेने के लिए भगवान का प्यार चाहते हैं। तुम हमसे प्रेम करो, यह भगवान के साथ पहली शर्त है-हम करें कि न करें-और फिर तुम हमारी सेवा करो-जो हम कहें सो ही करो-जो हम चाहें सो ही करो। हम ईश्वर के साथ एक बढ़िया नौकर का व्यवहार करना चाहते हैं। जैसे नौकर को देते हैं, लेते हैं, खुश रखते हैं, और चाहते हैं कि यह हमारे मन का काम करे। यह तो कोई भगवान की इज्जत नहीं है, कोई सम्मान नहीं है। और भगवान काम भी करते हैं तो वे हृदय की अपेक्षा से ही करते हैं। जिसके हृदय में भगवान बैठे हैं, उस हृदय में जो भगवान की ज्योति जगमगा रही है, जो उनकी छवि छलक रही है, वह अपने हृदय-दर्पण में प्रतिबिम्बित जो भगवान की छवि है, वह हमारा काम करती है, स्वयं भगवान काम नहीं करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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