गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 10
बुद्धि के सामने भगवान हों तो ज्ञान होता है, प्रीति के सामने भगवान हों तो भक्ति होती है और कर्म के सामने भगवान हों तो यज्ञ होता है। गीता में ज्ञान का वर्णन इस प्रकार है- बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।[1] ज्ञान भी एक तपस्या है। उपनिषदों में तप शब्द का अर्थ ज्ञान है। जब- आता है, उसका अर्थ ज्ञान ही होता है। सारी सृष्टि ज्ञान से होती है। जब हमारी प्रीति भगवान की ओर बढ़ती है- ये यथा मां प्रपद्यन्ते- तब भक्ति हो जाती है। अगले श्लोक में कहा- कांक्षन्त कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:। इसमें जो ‘मानुषे लोके’ शब्द है इस पर आप थोड़ा ध्यान दें। मनुष्य लोक में ही कर्मज सिद्धि है। तात्पर्य यह कि मानव-जाति में ही कर्म की सिद्धि है और सब परवश होकर प्रकृति के राज्य में विचरण करते हैं; किन्तु मनुष्य को प्रकृति के राज्य से मुक्त होने का भी सामर्थ्य प्राप्त है। मनुष्य के शरीर में भी इसकी कुछ सूचना मिलती है। देखो वृक्ष नीचे से ऊपर जाता है। संस्कृत में इसीलिए इसका नाम ‘पादप’ है कि वह पाद से पीता है, नीचे से ऊपर की ओर जा रहा है, उन्नति कर रहा है। पशु-पक्षी आगे से खाते हैं और उनका खाया हुआ पीछे को जाता है किन्तु मनुष्य इतना ऊपर चढ़ गया है कि दो पाँव पर खड़ा है। दो हाथ और मुँह से खाता है तथा उसका खाया हुआ नीचे जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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