गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 8
भगवान ने पहली बात कही अनन्यता। ‘न अन्यत् तत्त्वं एषा’ परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व जिनके लिए नहीं है। एक परमात्मा ही सर्व-रूप में प्रकट है, सर्व का आधार है, सर्व का अन्तर्यामी है, सर्व का अधिष्ठान है और सर्व का प्रकाशक है। उसके सिवाय न कोई आधार है, न अन्तर्यामी, न उसके सिवाय कोई अधिष्ठान है और न प्रकाशक। भक्त लोग कहते हैं - ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।’ मेरे तो सब कुछ भगवान ही हैं। दूसरा कोई नहीं है। मधुसूदन सरस्वती कहते हैं - श्रीकृष्ण के सिवाय और कोई तत्त्व है, यह मुझे ज्ञात नहीं है। जिनको भगवद्-रस का आस्वादन हो जाता है, एक बार भगवान के चरणाविन्द में मन लग जाता है, उसको अभ्यास से ‘अनन्यता’ लानी नहीं पड़ती है, स्वाभाविक ही ‘अनन्यता’ उसमें आ जाती है। भगवान के चरणाविन्द से अमृत की धारा बह रही है। झर-झर, झर-झर - ‘अमृतस्य’ धारा। उनमें जिसने अपना मन लगा लिया अपनी आत्मा को सन्निविष्ट कर दिया, उसको फिर दूसरी वस्तु पाने की इच्छा कैसे हो सकती है - ‘स्थितेऽरविन्दे’ मधु से, मकरन्द से, रस से भरपूर अरविन्द अपने सामने है। मधुव्रत निष्ठावान है। मधु के सिवाय अन्य कुछ नहीं लेता। दल को, पत्ती को, फल को हानि नहीं पहुँचाता। दूसरी वस्तु उसमें-से लेता नहीं। कण भी नहीं लेता, पराग भी नहीं लेता। जिसको अरविन्द, मकरन्द का समास्वादन प्राप्त हो जाय वह किसी सूखी घास की ओर, सूखे तृण की ओर क्यों देखेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 9.22
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