गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 10
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। इतनी बात कहकर श्रीकृष्ण चुप हो गये। इसमें यह कहा गया कि भगवान की बड़ी कृपा होती है तब वे हमारे अज्ञानजन्य अन्धकार को, भ्रम को नष्ट करते हैं। यह बात बड़े-से-बड़े वेदान्तियों ने स्वीकार की है। दो ग्रन्थों का नाम लेता हूँ, एक तो खण्डन खण्ड-खाद्य जो श्री हर्ष की रचना है। वेदान्त के उच्च-कोटी शिखर ग्रन्थों में उसकी गणना है। और एक अवधूत गीता, फक्कड़ों की पुस्तक में, फकीरों की पुस्तक में वह सर्वोपरि मानी जाती है। दोनों में यह बात आयी कि -
ईश्वर के अनुग्रह से ही मनुष्य के हृदय में अद्वैत वासना का उदय होता है। यह ईश्वर के अनुग्रह की पहचान है। अभिज्ञान है। हमारे ऊपर ईश्वर की कृपा हो रही है? हाँ हो रही है। कैसे हो रही है? हमारे हृदय में अद्वैत की भावना का उदय हो रहा है। महद्भयपरित्राणा - इससे जो संसार का जन्म, मरण का महान भय है, उससे रक्षा हो जाती है। परन्तु द्वित्राणामुपजायते - केवल दो-तीन व्यक्तियों की होती है। किसी-किसी के हृदय में अद्वैत भावना का उदय होती है, नहीं तो अधिकांश किसी-न-किसी संकीर्ण भावना के वश मं हो जाते हैं। अद्वैत वासना संकीर्ण वासना नहीं है, उर्दीण वासना है। जिसमें अपने-पराये का कोई भेद हीं नहीं होता। यह भगवान सबको नहीं देते हैं, किसी-किसी को देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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