गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 3
गीता चाहती है कि विवेक और कर्म इन दोनों का समन्वय बना रहे। विवेक निकम्मा न हो जाये सीधी-सादी बात है, विवेकहीन कर्म लोक-परलोक-सुख सबको बिगाड़ता है और कर्महीन विवेक मनुष्य को अकर्मण्य बना देता है। अतः कर्म और विवेक दोनों साथ मिलकर चलें, यही भगवान अर्जुन से कहना चाहते हैं। इसको उन्होंने बुद्धियोग शब्द से व्यवहृत किया है। इसमें जो योग है, उसका अर्थ है कर्मयोग और जो बुद्धि है, उसका तात्पर्य है सांख्ययोग। सांख्य और योग अर्थात कर्म बुद्धि-कर्म और विवेक-इन दोनों का मिश्रण। विवेक में बाधा कौन डालता है? कामासक्ति। जब हम किसी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाते हैं और इस प्रकार का आचरण करने लगते हैं कि चाहे जो हो जाये हमें तो यही करना है तब ज़िन्दगी में ज़िद आ जाती है। संस्कृत में ज़िद को दुराग्रह बोलते हैं और जब मनुष्य उससे ग्रस्त हो जाता है तब उसे ‘दुराग्रह-ग्रह-गृहीत’ कहते हैं। जब वह विवेक का तिरस्कार करके कोई काम करना चाहता है तब वह अहितकर कर्म कर बैठता है। केवल निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए तो कर्महीन विवेक भी काम देता है, किन्तु कर्म उपयोगी है। कर्म कैसे उपयोगी है? इसके सम्बन्ध में हम थोड़ी बात आपको सुनाते हैं। यदि ब्याह का प्रसंग हो तो लड़की को लड़के के बारे में और लड़के को लड़की के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। क्योंकि वहाँ संग्रह होना है, दोनों को मिलकर रहना है। इसको ‘सविषयक ज्ञान’ बोलते हैं। दूसरे के सम्बन्ध में यदि कुछ लेना हो, देना हो, छोड़ना हो तो ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही ऐसा हो सकता है। करना-त्यागना ज्ञान का स्वभाव है यदि आप दूसरी वस्तु को जानोगे, तभी उसके अच्छी होने पर उससे प्रेम करोगे और उसके बुरी होने पर उसको छोड़ दोगे। परन्तु अपने स्वयं के बारे में जो ज्ञान होता है उसमें न छोड़ना पड़ता है और न पकड़ना, क्योंकि वह तो स्वतः सिद्ध है। छोड़ने वाला भी वही, पकड़ने वाला भी वही। किसी ने पूछा कि अपने-आपको जानकर क्या करोगे तो बोले कि यदि जाना कि मैं बहुत बुरा हूँ तो आत्महत्या कर लूँगा। उत्तर मिला कि आत्महत्या करके भी तुम नहीं मरोगे। मनुष्य का शरीर जहाँ पूरा होता है वहीं से प्रारम्भ होता है। यदि वह निर्वासन नहीं, निष्काम नहीं, तत्त्वज्ञानी नहीं, तो उसका जीवन जहाँ समाप्त होता है, वहीं से दूसरा प्रारम्भ होता है। यदि वह निर्वासन नहीं, निष्काम नहीं, तत्त्वज्ञानी नहीं, तो उसका जीवन जहाँ समाप्त होता है, वहीं से दूसरा प्रारम्भ हो जाता है। वही परिस्थिति, वही दृश्य, वही दुःख, वही सुख। उनसे मरकर भी बच नहीं सकते। आत्मज्ञान के अतिरिक्त दूसरे जितने ज्ञान हैं वे त्याग और संग्रह के लिए होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज