गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 6
चित्त को अपने में लेना चाहते हैं। उसके लिए ‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव’।[1] बुद्धियोग का आश्रय लो और अपने चित्त को मेरा स्वरूप बना दो। वैसे तो लोग ‘मयि चित्तं यस्य असौ मच्चित्तः’ मुझमें जिसका चित्त है उसको ‘मत चित्तः’ कहते हैं। संस्कृत के जो विशेष पण्डित हैं, वे ‘अहमेव चित्तं यस्य’- - मैं ही जिसका चित्त हूँ माने ढूँढ़ने पर भी शरीर में चित्त नहीं मिलता है, ढूँढ़ो भगवान मिलते हैं। माने चित्त भगवन्मय भगवदाकार, भगवत-स्वरूप हो गया है। उसको कहेंगे ‘मत चित्तः’। अहमेव चित्तं असौ मत चित्तः। वृन्दावन में एक महात्मा थे, भक्त कोकिल। उनकी जीवनी भी मैंने लिखी है। उनके मुख से मैंने सुना था-
दिल और मैं दोनों खो गये हैं। आजकल तो वह है जो हमारे मन को भगवान बना दे। आत्मा का भगवान होना तो वेदान्त-सिद्ध है, श्रुति-सिद्ध है। वह तो यथास्थित है, उसको बनाना नहीं पड़ता। पर भक्ति का यह काम है कि मन को भगवान बना दे। चित्त को भगवान बना दे। भक्ति निर्मात्री है। भक्ति वह शक्ति है जो सच्चिदानन्दघन भगवान को अपने हृदय में अभिव्यक्ति देता है। दूसरी जगह भगवान कहते हैं कि ‘मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि’। मच्चिस हो जाओ तुम। कहीं-कहीं लोग ‘मत’ शब्द का प्रयोग जब गलत करते हैं-जैसे मद्भागवत-तो हमने कई सेठो के मुँह से सुना-उनको श्री बोलने का अभ्यास नहीं-तो ‘मद्भागवत’ बोलते हैं। मद्भागवत शब्द का कोई अर्थ नहीं है। वहाँ तो श्रीमान के लिए श्रीमद् है। श्रीमान भागवत-कोई बोले मान भागवत-तो क्या अर्थ होगा इसका? मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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