गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 6
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद् गीते भवद्वेषिणीम्। वर्णमयी माँ अम्बा शब्द का अर्थ होता है। वर्णमयी माँ-साक्षात् परावाक् जगत की जननी-यह वर्णमयी माँ है। बस, नये-नये नाम रखते जाते हैं, वस्तु एक ही है। नाम से ही सृष्टि का विस्तार हुआ है। रूप का हेतु भी नाम ही है। वैसे श्रुति में नाम और रूप दोनों एक कक्षा के माने जाते हैं। एक ही वस्तु की व्याकृति है-नाम और रूप। ‘नामरूपे व्याकरवाणि’।[1] जगत जननी जगदम्बा परावाक् भगवती गीता शब्दमयी है। इसमें अब अर्जुन की वाणी बोलते हैं। बोलने के पहले उसने हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। वाणी गद्गद हो रही थी। पुनः प्रणाम किया। भगवान को नमस्कार करके तब अर्जुन ने यह बात कही है। ‘नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य। प्रणाम का अर्थ है-नम्र हो गया है। नम्र हो गया माने अभिमान टूट गया। विश्वरूप को देखने पर अपने शरीर में जो मैंपने का अभिमान है, यह टूट जाता है। वैसे लौकिक बात है कि यदि अपने धन का, विद्या का या सुन्दरता का या शरीर की शक्ति का अभिमान हो तो अपने-से बड़े को देखना चाहिए। बड़े को देखोगे तो अपना अभिमान कम हो जावेगा और यदि गरीबी सता रही हो तो अपने से गरीब को देखना चाहिए। जब अपने से भी गरीब को देखेंगे तो अपनी गरीबी का दुःख कम हो जाता है। अपने से बड़े को देखना-यह अभिमान को कम करने वाली वस्तु है। अर्जुन बोले- स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या, पहले एक बात सुना दूँ। यह जो श्लोक है यह विष्णुपञ्जर नाम के ग्रन्थ में मन्त्र के रूप में उल्लिखित है। ‘स्थाने हृषीकेश’ यह एक मन्त्र है। जब किसी भी प्रकार का मनुष्य के जीवन में भय हो तो इसका पाठ करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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