गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 10
यह प्रश्न यदि हमने जीवन में उदय हो जाय, अपने हृदय में आ जाय तो पता लगेगा कि हम कितने दुराग्रही है, कितने ढोंगी हैं और आखिरी बात कितने मूर्ख हैं। प्रश्न है कि सत्य को तो जानते नहीं और एक भेड़ के पीछे जैसे दूसरी भेंड़ चलती है अपनी बुद्धि का अभिमान, अपनी मान्यता की जिद्द-यही हमारे जीवन के प्रेरणा-स्त्रोत बन गये हैं। क्या शुभ है और क्या अशुभ-जो परमात्मा के स्वरूप को, यथार्थ को, सत्य को पहचानता है, उसी को यह विभाग करने का अधिकार है, और उसको तो यह विभाग होता ही नहीं और इधर-उधर भटकने वाले लोग, जैसे राजनीति में पार्टी बन्दी होती है, ऐसे अपनी-अपनी पार्टी बनाकर और आपस में रोग-द्वेष करते हैं और अपने दिल को कलुषित करते हैं। भगवान ने कहा-भाई देखो, तुम्हें अगर सत्य से प्रेम है-यदि भगवान से प्रेम करना है और भगवान का प्रेम पाना है तो यह जो लौकिक शुभाशुभ का विभाग है, इसको जहाँ-का-तहाँ छोड़ दो और अपनी प्रीति, अपनी रीति भगवान के साथ जोड़ो। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान यः स मे प्रियः। जो व्यक्ति आपके सामने स्पष्ट रूप से बोल रहा है- सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। वह यदि ‘सर्वारम्भ परित्यागी’ कहे, अथवा शुभाशुभपरित्यागी कहे, तो आश्चर्य क्या होना चाहिए? तत् तत् प्राप्य शुभशुभम् नाभिनन्दति, न द्वेष्टि। वह आपके शरीर का निर्माण नहीं कर रहा है, वह तो माँ-बाप करते हैं; आपके कर्म का निर्माण नहीं कर रहा है-वह आपका शिक्षक बताता है-कैसे करना, कैसे नहीं करना। वह तो आपके हृदय का निर्माण कर रहा है। और वह भी जहाँ वह रहता है उसी स्थान को स्वच्छ बना रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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