गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 1
अब पहले एक बात देखें। यह जो तत्त्वज्ञान की - ज्ञान की, विज्ञान की चर्चा की जाती है - श्रवण-उपदेश् होता है वह अरण्य-भूमि में होता है। अरण्यभूमि अर्थात् पर्वतों की तलहटी, गंगातट। यह गीता का उपदेश रणभूमि में हो रहा है। यह तत्त्वज्ञान अरण्य-भूमि में-से उठाकर रणभूमि में लाया गया है। अर्थात् जीवन-संघर्ष में जो काम आये वही उत्तम ज्ञान। ‘प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते’ - नगाड़े बज रहे हैं। घोड़े हिनहिना रहे हैं। हाथी चिग्घाड़ रहे हैं। वहाँ यह ज्ञान प्रकट हो रहा है। आपके जीवन में कितना भी कोलाहल हो और कितना भी संघर्ष हो, यह ज्ञान वहाँ काम में आने के लिए है। न गंगातट है, न हिमालय है और न कोई नैमिषारण्य है। दूसरी बात पर ध्यान दें। यह कि हमेशा वक्ता श्रेष्ठ होता है और श्रोता को नीचे बैठना पड़ता है। परन्तु गीता का श्रोता रथी है और वक्ता सारथि है। सारथि तो ड्राइवर की तरह है और रथी मालिक की तरह। जीवात्मा यदि रथी है तो बुद्धि सारथि है। ‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि।’ यहाँ तो जो शिष्य है वह बड़ा है और जो गुरु है वह छोटा है। बुद्धि जीवात्मा के अधीन होती है। श्रीकृष्ण अर्जुन के अधीन सारथि हैं - सारथि माने सहायक। ‘अग्नेर्वायुः सारथिः।’ अग्नि का सारथि वायु है। यहाँ छोटे-बड़े को उपदेश कर रहा है। इसका अर्थ है - ‘बालादपि सुभाषितम्।’ यदि बच्चा भी कोई अच्छी बात कहे - नौकर भी अच्छा उपदेश करे तो उसे श्रवण करना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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