गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 7
सारी गीता सुनकर अर्जुन ने अन्त में कहा- ‘करिष्ये वचनं तव’[1] मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। गीता के प्रारम्भ में अर्जुन की आज्ञा का श्रीकृष्ण ने पालन किया था! ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।[2] कृष्ण दोनों सेनाओं के बीच में मेरा रथ जमा दो। पहले भगवान ने अर्जुन की आज्ञा का पालन किया, और अन्त में अर्जुन ने कृष्ण की आज्ञा का पालन किया। ‘करिष्ये’-करूँगा, कर्म-प्रेरणा प्राप्त हुई। पर कर्म-प्रेरणा के मूल में दर्शन है कि नहीं, दृष्टि है कि नहीं? दृष्टिहीन कर्म अन्धा होता है। आँख न हो और आदमी चलता हो तो उसको दृष्टिहीन कर्म कह दिया। बुद्धि न हो, तब भी कर्म करता है तो उसको दृष्टिहीन कर्म कह दिया। गीता में अर्जुन को कर्म नहीं दिया है, दृष्टि दी है। बिना दृष्टि के जो कर्म होगा वह ‘कान्दिशीक’-(संस्कृत भाषा में) कहलाता है-किधर जाना? आँख के बिना अन्धा चले तो कहाँ जावे? कर्म अन्धा है और दृष्टि पंगु है। पंगु माने लंगड़ी। आँख है लंगड़ी और पाँव है अन्धा। एक जगह दो भिखारी थे। एक लंगड़ा और एक अन्धा। दोनों के मन में यह इच्छा थी कि हम बद्रीनाथ की यात्रा कर आवें। चुप-चुप रहते थे मन में, एक दिन सलाह कर ली। सलाह कर ली तो दोनों की वही वासना थी। अन्धेरे कहा क्या करें भाई; हम को दीखता नहीं, नहीं तो हम बद्रीनाथ जाते। लॅंगड़े ने कहा हमसे चला नहीं जाता-अगर चल सकते तो हम भी बद्रीनाथ जाते। अब दोनों में सलाह हुई। अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठ गया और वह रास्ता बताता जाय और अन्धा चलता जाय। तो लंगड़े को आँख और अन्धे के पाँव। दोनों में जब दोस्ती हो गयी तो बद्रीनाथ की यात्रा कर आये। ये सांख्य-दर्शन के मूल में ही सूत्र है। ‘अन्ध-पंगु न्याय’ बोलते हैं इसको। यह जो हमारा कर्म है यह अन्धा होता है-यह आगे-पीछे की कुछ नहीं समझता और हमारी अन्तर्दृष्टि होती है, वह आगे और पीछे का सब मसझती है। मनुष्य के अन्दर, जीव के अन्दर शक्ति तो है परन्तु अन्तर्दृष्टि जो है वह शुद्ध नहीं है। शुद्ध नहीं है माने कभी घबड़ा जाता है-घाटा निकला सेठ जी को- हम लोग तो सेठों की ही बात करते हैं-घाटा आया घबड़ा गये-तबीयत खराब हुई डॉक्टर ने आकर 2-4 सुई लगा दी। पर वह जो घाटे वाला दुःख है, वह सुई लगाने से तो नहीं मिटता है। घबड़ाहट में भी काम नहीं करना चाहिए और लोभ में आकर भी काम नहीं करना चाहिए। लोभ में आदमी गलत कदम उठाता है और घबड़ाहट में, उद्वेग में भी गलत कदम उठाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज