गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 5
प्रश्न: गुणों के लक्षण-ग्यारहवें श्लोक में-सत्त्वगुण याने चेतनता, विवेकशक्ति आदि का उदय अथवा अभिवृद्धि, बाहरवें श्लोक में-रजोगुण याने लोभ, स्वार्थ, अशान्ति, विषय भोगों की लालसा आदि में वृद्धि और तेरहवें श्लोक में-कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति, प्रमाद, निद्रा आदि की स्थितियों में रुचि अथवा अभिवृद्धि के सूत्र कहे हैं। उनके संकेत सूत्र क्या हैं? साधारणतया मानव परदोषदर्शी होता है और स्वयं को निर्दोष अथवा दोषमुक्त समझ लेता है। अपने लिए तो वह सहनशील और क्षमाशील होता है, तो फिर सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, प्रवृत्तियों के उदय अथवा अवसान का मापदण्ड क्या होगा? कृपया बतायें। उत्तर: अपने जीवन में सत्त्वगुण की जो वृद्धि होती है, उसकी पहचान क्या है? पहचान को संस्कृत भाषा में लक्षण बोलते हैं। लक्षण, लखाना, पहचान-संस्कृत शब्द देखकर ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि न जाने इसमें क्या है? वहीं जो हम अपने घरों में अपनी बोलचाल में बोलते हैं, वही बात संस्कृत में बोली हुई होती हैं। उसको अपनी घर-घरेलू भाषा से दूर नहीं करना चाहिए। सत्त्वगुण जब बढ़ता है, तब क्या होता है कि हमारा यह जो जीवन है, यह ज्ञान, कर्म दोनों के मेल से बना हुआ है। कुछ कर्म, करने के लिए इन्द्रियाँ हैं, कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन्द्रियाँ हैं। कान, त्वचा, आँख, रसना और नासिका ये ज्ञान प्राप्त करने के लिए हैं और हाथ, पाँव, जीभ, मलत्याग, मूत्रत्याग के लिए पाँच कर्मेन्दियाँ बनी हुई हैं। ये घर के समान हैं, तो सत्त्वगुण की वृद्धि की पहचान यह है कि- सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन् प्रकाश उपजायते। रोशनी-ही-रोशनी, प्रकाश-ही-प्रकाश। ऐसा न मालूम पड़े कि कुछ सूझता ही नहीं है या ठीक-ठीक सूझता है। कुछ नहीं सूझ रहा है, यह तमोगुण की वृद्धि की पहचान है और बिलकुल ठीक सुन रहे हैं, छू रहे हैं, देख रहे हैं, चख रहे है, सूँध रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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