गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 5
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह संसारी जीव मोहित हो गया है। मोह माने बुद्धि का उलट जाना। मुह वैचित्ये-चित्त का विपरीत होना। जो चीज जैसी है उसकी वैसी न समझकर उससे उलटा समझना। चित्त की विपरीतता क्या है? त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् । इन तीन गुणों को ‘एभिः’ से व्यक्त कर रहे हैं। ‘एभिः’ माने ये सबको दीखते हैं। सबको मालूम पड़ते हैं। क्या दीखता है? यह हड्डी, मांस, चाम का तमोगुणी शरीर बना हुआ है। इसमें रजोगुणी क्रिया होती है। संसार का ज्ञान होता है। वह होता है सात्त्विक वृत्तियों से। द्रव्य का होना तामसी वृत्तियों से होता है। आत्मा इनसे परे है। उसपर इनगुणों का काई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इनसे उसका कोई बन्धन नहीं होता। शरीर नहीं था तब भी आत्मा था। नहीं रहेगा तब भी आत्मा रहेगा। क्रिया होती है तब भी आत्मा है। नहीं होती है तब भी आत्मा है। वृत्तियाँ उठती हैं तब भी आत्मा है। नहीं उठती हैं तब भी आत्मा है। एभ्यः परमव्ययम्-इसमें ‘एभ्यः’ शब्द दूसरी बार आया है। भगवान इनसे परे हैं। आत्मा इनसे परे है। किन्तु मनुष्य इनमें फँस गया है। देह नहीं था अपने को देह मानने लग गया। राग संसार से उपसृष्ट वृत्ति है। हम मोहित क्या हो गये-बुद्धि ही उलट गयी-पक्षपात करके। किसी के प्रति राग करके दूसरे के प्रति क्रूरता करने लगते हैं। उसके प्रति इतना द्वेष कर लेते हैं कि दिल ही जलने लगता है। किसी के प्रति इतना मोह हुआ कि अच्छाई, बुराई, उचित, अनुचित सब भूल गया। यह है मोह जो त्रिगुणमय है। जैसे कोई रस्सती तिगुणी हो-तेहरा बटी हुई हो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.13
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