गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-6 : अध्याय 9
प्रवचन : 7
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्। ये साधन, जितने हैं वे सब मैं ही हूँ। चाहे वे जीवन के साधन हों, चाहे अन्य। देवता के रूप में मैं हूँ। जो हमारे जीवन में कर्मानुष्ठान होता है उसके रूप में स्वयं भगवान प्रकट होते हैं। ‘अहं क्रतुरहं यज्ञः।’ ‘पिहामहस्य जगतो माता धाता पितामहः’ में यह बताया कि संसार में जितने सम्बन्ध हैं उन सब सम्बन्धियों के रूप में भी मैं ही हूँ - साधन का रूप मत देखो, मुझे देखो और सम्बन्धि का रूप मत देखो, मुझे देखो। तब रागद्वेष नहीं होगा। फिर ये वैदिक ऊँकार, ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद ये सब भी मैं ही हूँ। ‘गतिर्भर्ता, प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्’। आपके लिए जो कुछ चाहिए वह सब मैं ही हूँ।
अपने मुँह से कह दिया - मैं गति हूँ, भर्ता हूँ, प्रभु हूँ, निवास हूँ, प्रभव हूँ, प्रलय हूँ, स्थान हूँ, अव्यय बीज में मैं ही सब कुछ हूँ। अब एक आश्वासन और देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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