गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 9
प्रायः लोगों की धारण है कि धर्म में श्रद्धा ही प्रधान होती है, वहाँ केवल विश्वास ही करना पड़ता है। यह बात दूसरे मजहबों की दृष्टि से ठीक भी है। वैदिक धर्म में भी जहाँ तक परलोक का प्रश्न है- यह करेंगे तो स्वर्ग मिलेगा और वह करेंगे तो नरक मिलेगा- उसके साथ भी श्रद्धा का सम्बन्ध है। परन्तु वैदिक धर्म में जो परमार्थ का दर्शन है, साक्षात्कार है, वह केवल श्रद्धा-विश्वार पर अवलम्बित नहीं। ‘घटवत् किं न भासते’- विद्यारण्य स्वामी ने कहा कि परमार्थ क्या वैसे ही नहीं दीखता जैसे घड़ा दीखता है। जैसे स्फीतालोक- मध्यवर्ती प्रत्यक्ष घट दीखता है, वैसे ही परमात्मा का दर्शन भी स्पष्टम्-स्पष्टम् होता है। उसमें श्रद्धा-विश्वास की बात नहीं रहती। भले ही प्रारम्भ में श्रद्धा-विश्वास करना पड़ता हो, परन्त उसका अन्त साक्षात्कार में ही है। प्रमाण द्वारा परमेश्वर का ज्ञान, वैदिक धर्म की विशेषता है। हम लोग केवल पुराणवादी नहीं, हमारे साथ दर्शन है। आप इस बात पर ध्यान देना कि दुनिया के किसी मजहब के साथ दर्शन नहीं, दर्शन तो केवल हमारे साथ है। इसका कहना है हमको परमात्मा केवल इसलिए अप्राप्त है कि हम उसे न जानते हैं न पहचानते हैं। श्रुति कहती है कि ‘अनृतेन हि प्रत्यूढाः’- लोग मिथ्या के द्वारा बहकाये जा रहे हैं। झूठी मान्यताओं के कारण इधर से उधर भटक रहे हैं। ऋग्वेद का मन्त्र है- ‘न तं विदाथ य इमा जजान’- तुम उसको नहीं जानते, जिसने यह सृष्टि पैदा की। ‘अन्यद् युष्माकं अन्तरं बभूव’- तुम्हारे और उसके बीच में एक दूसरी वस्तु आकर खड़ी हो गयी है। 'नीहारेण प्रावृता जल्प्या आसुतृपाः उक्थशासा चरन्ति’ दुनिया के लोगों की आँखों में कुहासा छा गया है। वे केवल प्राणपोषण-परायण हो गये हैं। बकवादी हो गये हैं, बोलते अधिक हैं, वस्तु को पहचानने का प्रयास नहीं करते। इस अन्धकार में विचरण कर रहे हैं। ‘अज्ञानेनावृत्तं ज्ञानं’-ज्ञानस्वरूप आत्मा अज्ञान से ढका हुआ है। यदि आप ज्ञान प्राप्त कर लें तो उसका आवरण अपने-आप भंग हो जायेगा- ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। आप इस बात को वैदिक धर्म की विशेष सम्पत्ति समझें कि यहाँ ज्ञान से अज्ञान का नाश होकर परमार्थ का परमात्मा का दर्शन या साक्षात्कार होता है। जब परमात्मा को निर्गुण, निर्विशेष कहते हैं तब इसका अर्थ होता है जैसा यह वैसा वह- जैसा वह वैसा यह- जैसा मैं वैसा वह, जैसा वह वैसा मैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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