गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 9
निर्विशेष- अर्थात् विशेष नाम की वस्तु से, भेदनाम की वस्तु से रहित। इसलिए केवल अज्ञान ही परमात्मा की प्राप्ति में बाधक हो रहा है। जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है तब अज्ञान का नाश हो जाता है। जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर वह स्वयं प्रकाशित होता है और अन्धकार का नाश तथा पहले-से विद्यमान वस्तुओं का दर्शन होता है; वैसे ही परमतत्त्व का प्रकाश होता है। परम के साथ जो तत् शब्द है, वह अज्ञान का भी वाचक है- ‘तस्मात् परम् तत्परम् अज्ञानात् परम्।’ वेदाहमेतम् पुरुषं महान्तम् आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्। परमात्मा वह है जो तमस् से, अन्धकार से- अज्ञान से परे है। ‘परे’ शब्द का अर्थ भी संसार में दूसरी तरह से और परमार्थ में दूसरी तरह से होता है। एक मैं हूँ और एक पराया है। एक का नाम हुआ संसार और एक का नाम हुआ मैं। लाखों मैं में एक मैं ‘पर’ रहकर मैं को प्रकाशित करता है। परमार्थ में ‘पर’ माने होता है अन्तरंग, प्रत्यक् और व्यवहार में ‘पर’ माने होता है पराया- दूसरा। गीता कहती है- इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:। कठोपनिषद् में इस प्रकार कहा गया है- इन्द्रयेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्व परं मन:। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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