गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 7
प्रश्न: परमात्मा उपद्र्ष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर आदि है, इसका अनुभव साधक किस प्रकार करे? इन शब्दों का रहस्य हृदयंगम हो सके, ऐसी व्याख्या करें। इसी के साथ एक और प्रश्न है कि परमात्मा ने यह कैसे कहा कि ‘द्यूतं छलयतामस्मि’-मैं छल करने वालों में द्यूत हूँ। यह कैसे कहा कि मैं सत् भी हूँ असत् भी हूँ अमृत भी हूँ, मृत्यु भी हूँ। इसके ऊपर विचार बतावें। उत्तर: पहली बात इसमें ध्यान देने योग्य यह है कि परमात्मा कहीं दूर देश में नहीं है। ‘अस्मिन् देहे’। इसी देह में परमात्मा है। कहीं दूसरे काल में भी नहीं है। माने उसके लिए न प्रतीक्षा की आवश्यकता है, और न लम्बी यात्रा करने की। उसके पास पहुँचने के लिए समाधि की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। इससे दूर देश, दूर काल दोनों कट गये। अस्मिन्नेव देशे, अस्मिन्नेव काले, अस्मिन्नेव देहे। यह जो एक मोटर सरीखा शरीर बना है-‘देह’ शब्द का संस्कृत में अर्थ होता है-ढेर, राशि। जैसे अनेक पुरजों को जोड़ करके बैलगाड़ी बनती है, मोटर बनती है, वैसे अनेक पुरजों को जोड़ करके यह शरीर बना है। दर्शनशास्त्र का नियम यह है कि जो चीज बहुत पुरजों को जोड़कर बनती है वह चीज के लिए नहीं होती है, यह किसी दूसरे के लिए होती है। मोटर मोटर के लिए नहीं, मालिक के लिए होती है। नमक, हल्दी, दाल, पानी पकाकर जब पकवान् बनाते हैं वह पकवान के लिए नहीं होता है, किसी के खाने के लिए होता है। यह देह स्वयं अपने में कोई पूर्ण पदार्थ नहीं है। किसी का यह उपकरण है, किसी का वाहन है। हम वाहन को तो देखें लेकिन वाहन के मालिक को न देख सकें, तो पूर्ण दर्शन नहीं हुआ। जड़ का दर्शन हुआ, चेतन का दर्शन नहीं हुआ। इस देह को मेरा देह कहने वाला जो है- देह वाला है, उसको पुरुष कहेंगे। देहेऽस्मिन् पुरुषः परः। उस पुरुष की भी कक्षा होती है एक जाग्रत को मेरा करने वाला पुरुष, एक स्वप्न को मेरा करने वाला पुरुष, एक सुषुप्ति को मेरा कहने वाला पुरुष। जब जाग्रत पुरुष विलीन हो जाता है, स्वप्न देखने वाले में, तो जाग्रत पुरुष परे स्वप्न पुरुष हो जाता है और जब प्रश्न देखने वाला पुरुष में विलीन हो जाता है-तब चैतन्य ही रह जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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