गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 9
अब यह है कि कभी-कभी किसी भक्त को देखकर अपने आपको भगवान भूल जायँ, उसके लिए द्रवित हो जायँ, ‘जटायु की धूरि जटान से झारी’-तो वह बात दूसरी है। नहीं तो भगवान का प्रतिविम्ब ही हमारे हृदय में रहकर हमारा सब काम बनाता रहता है। भगवान को तो पता ही नहीं चलता। यदि भगवान से काम लेना हो तो अपने हृदय का दर्पण स्वच्छ रखिये और उसमें भगवान की छाया, प्रतिबिम्ब पड़ने दीजिये। पहले एक ‘छाया-पुरुष’ की साधना होती थी। अब भी कोई करते होंगे। शीशे में अपनी परिछाई पड़ती थी और उसको चेतन कर लेते थे और हुकुम देते थे कि तुम यह काम करो। ऐसी एक साधना हमारे बचपन में प्रचलित थी। भगवान भी अपनी परिछाई, प्रतिबिम्ब, छाया हमारे स्वच्छ हृदय-दर्पण में डाल देते हैं और वह अपने भक्त को जो अभीष्ट है, लालसा है, (वह प्राइवेट भगवानृ होता है-वह सार्वजनिक नहीं होता) उसको वह प्रतिबिम्ब ही पूरा करता है- भक्त की अब आगे पहचान बताते हैं- अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 12.16-19
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