गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 6
पहली बात तो यह है कि पुण्य कर्म करें, विहित कर्म करें, निषिद्ध कर्म न करें। आप वासना को अपने काबू में कर लें ईश्वर पर दृष्टि जाने का संयोग ही कहाँ है, जब तक हम बुराईयों में फँसे हुए हैं। गिरते हैं, कभी चलते हैं-कभी गिरते हैं। ऐसा भी एक जीवन होता है। जो चलते हैं उनका गिरना तो सम्भव है। पर गिरकर जो न उठें, न चलें तो यह अपराध है। गिरते-पड़ते आगे बढ़ो। छूट गया, कोई हरज नहीं, गलती हो गयी, कोई बात नहीं। परन्तु फिर उठो तो मुँह आगे की ओर रहे। वहीं पड़े न रह जावें। कहीं पीछे लौट न आवें। आगे बढ़ें आगे बढ़ें। ईश्वर की ओर देखें। हे प्रभु! हम तो गिर गये, अब तुम उठालो।’ ईश्वर की ओर देखते ही मन में पवित्रता आ जाती है। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्ष स बाह्यभ्यन्तरों शुचिः पुण्डरीकाक्ष का स्मरण हुआ, कमलनयन प्रभु का स्मरण हुआ और आगे बढ़े। यह बात जैसे ज्ञानाभिमान में गिरने की होती है, वैसे ही योग की सिद्धियों में फँसने पर भी गिरने की बात होती है। जो कुछ करते हैं वह प्रभु ही करते हैं-जबान से तो ऐसा बोलते हैं, परन्तु वासना-पूर्ति के मार्ग पर चलते हैं। कोई कहते हैं-‘हम धर्म तो जानते हैं पर हमसे पालन नहीं होता।’ कोई कहते हैं-‘ईश्वर जो कराता है सो करते हैं।’ कोई कहता है-‘हम तो सिद्ध हैं, हमारा कोई क्या बिगाड़ेगा।’ किसी को ज्ञान का अभिमान हो जाता है। ये लोग भगवान का भजन नहीं कर सकते। भगवान क्या कहते हैं-अर्जुन, तुम उपार्जन करना चाहते हो? कुछ योग, भक्ति, ज्ञान, धर्म और इनका फल चाहते हो? तो पुण्यात्मा बन लो पहले और पुण्यात्मा होकर भगवान का भजन करो। जैसे मालिक की सेवा में उपस्थित होना है, पिता के सामने जाना है, माता के सामने जाना है। स्वामी के सामने जाना है तो ठीक-बाल भी बिखरे हुए न हों, कपड़े ठीक हों। पहले से स्नान कर लें। पवित्र हो लें। तैयार हो लें श्रृंगार करके उसके सामने जाना। यह जानेवालों के लिए उचित होता है। यह जो पुण्य है-धर्म है; यह जीवात्मा का श्रृंगार है। भजन में आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी चार भेद हुए। ऐसा लगता है कि अर्थार्थी के बाद जिज्ञासु का स्थान होना चाहिए। आर्त वह है जो कष्ट दूर करने के लिए भगवान का भजन करता है। अर्थार्थी वह है जो कुछ पाने के लिए भगवान का भजन करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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