गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 6
जिज्ञासु वह है जो भगवान को जानने के लिए भजन करता है और ज्ञानी वह है जो भगवान को जानकर भजन करता है। यदि क्रम बैठाना चाहें तो आर्त के बाद अर्थार्थी और अर्थार्थी के बाद जिज्ञासु और जिज्ञासु के बाद ज्ञानी आना चाहिए। एक व्याख्या तो यह है कि यहाँ क्रम विवक्षित नहीं है। पाठ के क्रम से अर्थ का क्रम बलवान् होता है। इसलिए जिज्ञासु को अर्थार्थी से ऊपर बैठाओ। श्रीमद्भागवत में ‘अर्थ’ शब्द का अर्थ ही दूसरा किया हुआ है। नलकूबर मणिग्रीव के प्रसंग में नारदजी ने गाना गाया तो वहाँ ऐसा कहा कि; तयो अनुग्रहार्थाय नलकूबर और मणिग्रीव पर अनुग्रहार्थ ही देवर्षि नारद ने यह संगीत गाया। नादरजी ने एक बात तो यह सोची कि मणिग्रीव नलकूबर से हमारे धर्म का आविर्भाव हो जावे। जैसे हमको भगवान की स्मृति रहती है, भगवान से प्रेम रहता है, जैसे हमारे हृदय में वे रहते हैं वैसे ही नलकूबर मणिग्रीव के हृदय में भी हो जावें। नलकूबर माने बाँस की तरह खड़ा। पीठ की रीढ़ उसकी कभी झुकती नहीं। किसी को नमस्कार नहीं करता था। मणिग्रीव माने जो अपने धन का प्रदर्शन करने के लिए अपने गले में बहुब बड़ा हीरा बाँधकर रखता था, देखो हमारे पास इतना बड़ा हीरा है, इतनी बड़ी मणि है। अभिमान से और दम्भ से दोनों ग्रस्त थे। शराब भी पीये हुए थे। जुआ भी खेलते थे। परस्त्री भी उनके पास थी। नंगे थे, बेहोश थे, परन्तु देवर्षि नारद के मन में उनके प्रति करुणा का उदय हुआ। उन्होंने कहा जैसे हम भक्त हैं वैसे ही भक्त ये हो जायें और इन्हें भी भगवान की प्राप्ति हो। ‘अर्थ’ शब्द का अर्थ है भगवत्प्राप्ति। एक तो आर्त है जो संकट, विपत्ति दूर करने के लिए भगवान का भजन करते हैं। विपद् विस्मरणं विष्णोः सम्पन्नारायणस्मृतिः। विपदो नैव विपदः-विपत्ति विपत्ति नहीं है। सम्पदो नैव सम्पदः-सम्पत्ति सम्पत्ति नहीं है। भगवान को भूल जाना ही सबसे बड़ी विपत्ति है। इसी से सारे दुःख पैदा होते हैं! नारायण का स्मरण है तो किसी विपत्ति का स्मरण नहीं है। श्रीमद्भागवत में एक प्रसंग आता है, कुन्ती ने प्रार्थना की- विपद: सन्तु न: शह्वत्तत्र तत्र ज्गद्गुरो। हमारे जीवन में विपत्ति पर विपत्ति आती रहे; क्योंकि जब-जब विपत्ति आती है तब-तब उसके निवारण के लिए आप आते हैं। आपका दर्शन होता है और जब आपका दर्शन होता है तो संसार दीखता ही नहीं। ऐसी प्रार्थना दुनिया में और कहीं नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक - 1.8.25
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