गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-12 : अध्याय 15
प्रवचन : 8
स्वयं अभिमानी न हो, दूसरों को सम्मान दान करें। क्योंकि जो लोग बहुत कृपण होते हैं, कँजूस होते हैं, उन्हें भी सम्मान-दान में तो कोई हिचक है ही नहीं। यदि वे किसी को देखकर खड़े हो जायँ, हाथ जोड़ लें, मुस्करा दें, स्वागत कर लें, तो उनका पैसा तो खर्च होता नहीं है। और कुछ नहीं दे सकते, तो दूसरों को मान-दान तो करना ही चाहिए, सम्मान देना चाहिए और स्वयं मान नहीं करना चाहिए। बीस गुणों का वर्णन जिज्ञासु के जीवन में किया गया। चौदहवें अध्याय में गुणों का वर्णन किया गया। यह गुणों का स्वभाव ऐसा है कि ये जीवन में बदलते रहते हैं। कभी प्रकाश, कभी प्रवृत्ति, कभी मोह - सामान्य रूप से ये जीवन में आते ही रहते हैं। हमने एक ऐसा महात्मा देखा, जो लेटा ही रहता था; सो हमारे साथ रहने वाले ब्रह्मचारी, संन्यासी हमको तो अकेले छोड़ जायँ और जो लेटा हुआ था, उसको चारों ओर घेरकर बैठ जायँ और जब यह कहे चाय, चाय, चाय तो सौ कुल्हड़ तक लोग उसको चाय पिला देते थे, पर लेटा ही रहता था। पोस्ट आॅफिस के सामने बगल में सड़क पर और ऐसे ही लेटा रहता था। अब कोई जाकर कहे - ओ महात्मा, क्यों पड़े-पड़े निकम्मे यहाँ अपना जीवन नष्ट कर रहे हो? अरे भाई, वह तो मस्त रहता था। भला! उसकी उस चुप्पी में, उस शान्ति में, उस निकम्मेपन में कितनी ऊँची स्थिति छिपी हुई थी इसको साधारण लोग पहचान नहीं पाते थे। एक महात्मा जबलपुर के पास भेड़ाघाट में थे, लेटे रहते थे, शरीर जरा मोटा था। ऋषिकेश में कैलाश के स्वामी चैतन्यगिरिजी ने कहा - ओ! महात्मा, क्या पड़ा हुआ है तमोगुणी! उसने इशारे से बुलाया था। हमारी हथेली कान में लगाओ। हथेली में-से राम-राम! सिर पर कान रखो - राम-राम! छाती पर कान रखो - राम-राम! तलवे में कान रखो - राम-राम! तो बाहर से देखने में जो तमोगुणी मालूम पड़ते हैं, उनके भीतर भी बहुत शान्ति और सत्त्वगुण रहता है। सामान्यतः हम पहचान नहीं पाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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