गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 5
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै: । भगवान कहते हैं कि तुम कर्म करो, किन्तु अपने लिए नहीं, मेरे लिए ऐसा करोगे तो तुम कर्म-बन्धन से छूट जाओगे। इसका तात्पर्य यह है कि मैं तो कर्म-बन्धन में आने वाला नहीं, तुम आने वाले हो। इसलिए तुम्हें कर्म-बन्धन से छूटने की आवश्यकता है। गीता में यह बात समझने की है। ‘संग त्यक्त्वा’ का अर्थ है कि कर्म का संग मत करो! नर्मदा मिले तो उसमें भी स्नान करो, गंगाजी मिलें तो उसमें भी स्नान करो। शिव को भी हाथ जोड़ो, देवी को भी हाथ जोड़ो। राम को भी हाथ जोड़ो, विष्णु को भी हाथ जोड़ो, किन्तु सबके भीतर जो एक तत्त्व है उसका स्मरण रक्खो। किसी भी विषय की प्राप्ति में आसक्ति न हो, देह में भी आसक्ति न हो। सबसे अधिक आसक्ति अपनी मान्यताओं में होती है। इसी के लिए मजहबी लोग आपस में लड़ते हैं। उनकी आपसी लड़ाई का एकमात्र कारण अपनी मान्यताओं में आसक्ति और दृढ़ आग्रह होता है। राग, द्वेष, घृणा, द्रोह आदि मन में क्यों आते हैं? संग के कारण ही आते हैं। आसक्ति के कारण ही आते हैं। जिसकी कहीं आसक्ति नहीं, उसके लिए कहीं बन्धन नहीं है। युक्त कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । कर्मफल में आसक्ति न हो, इसके लिए सावधान रहो- ‘युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा।’ कर्मफल न चाहने पर नैष्ठिकी शान्ति मिलेगी। मेरे पास आने वाले लोग कभी-कभी बोलते हैं-महाराज! हमारे मन में कोई इच्छा नहीं, परन्तु अशान्ति बहुत है। इसको वदतोव्याघात दोष बोलते हैं। जिसके मन में इच्छा नहीं होगी, उसको अशान्ति कैसे होगी? ज्ञान पाना चाहते हो, ईश्वर पाना चाहते हो, किसी अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना चाहते हो, तब अशान्ति हो सकती है। किन्तु जिसको कुछ पाना नहीं, उसके मन में अशान्ति होने का कोई कारण नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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