गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 2
महाभारत का कहना है- ‘तत्त्वमेकं द्विधा स्थितं’ एक ही सत्य वस्तु दो रूप धारण करके दिख रही है। वही कृष्ण है, वही राधा है। वही नर है, वही नारायण है। नर अर्जुन है, नारायण श्रीकृष्ण। वही शिष्य, वही गुरु। गुरु वही सच्चा गुरु होता है, जो अपने को शिक्षा दे। जो अपने को शिष्य बना ले वही सच्चा गुरु। जो दूसरों को चेला बनावे वह सच्चा गुरु नहीं। अर्जुन श्रीकृष्ण के ही स्वरूप है। श्रीकृष्ण का अर्जुन को शिक्षा देना अपने आपको ही शिक्षा देना है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्वयं कहा है- यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि, यस्त्वामनु स मामनु। जो तुमसे द्वेष करता है वह मुझसे द्वेष करता है और जो तुम्हारे पीछे चलता है वह मेरे पीछे चलता है। भक्त और भगवान का, जीव और शिव का ऐसा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। आपको सुनाया था कि श्रीकृष्ण परस्पर विरुद्ध धर्माश्रय हैं। ऐश्वर्य है तो इतना कि चाहे गोवर्धन उठा लें या ब्रह्माण्ड को तौल लें और अनैश्वर्य है तो इतना कि चाहे नन्दबाबा की खड़ाऊँ भी न उठे, यशोदा मैया का माँगा हुआ पाटा भी न ला सकें, पाटा[1] उठाने के लिए दोनों हाथ लगाते, नहीं उठता तो लेट जाते, छाती से लगाते, फिर धीरे-धीरे उठकर खड़े होते, मुखारविन्द लाल हो जाता। बलवान भी हैं, निर्बल भी हैं। यही परमात्मा का स्वरूप होता है। भक्ति में केवल बलवान रूप का आश्रय लिया जाता है। क्योंकि भक्त के लिए वही हितकारी होता है। तत्त्वज्ञान या प्रेम में बलवान की अपेक्षा नहीं होती। बलवान है, निर्बल है, कैसा भी है, हमारा है। प्रेम केवल एक गुण देखकर भगवान से नहीं जुड़ता। श्रीकृष्ण धर्मात्मा हैं। प्रातःकाल उठकर ब्रह्मस्वरूप का ध्यान करते हैं। स्नान करते हैं, हवन करते हैं, दान करते हैं। जैसे प्रतिदिन आय का साधन करते हैं, वैसे ही प्रतिदिन वितरण भी साधन करते हैं। श्रम करते हैं। विश्राम करते हैं। परन्तु उनके जीवन में कहीं-कहीं ऐसा भी देखने में आयेगा, जहाँ धर्म न मालूम पड़े। केवल जीव ही धर्म से आबद्ध अथवा अधर्म से आक्रान्त होता है। परमेश्वर का स्वभाव यह है कि वह न धर्म से बँधा हुआ है, न अधर्म से। धर्म, अधर्म दोनों से परे हैं। श्रीकृष्ण में यश भी है, अपयश भी है। जीव को केवल यशस्वी होना चाहिए। उसके जीवन में अपयश आयेगा तो उसको दुःख होगा। परन्तु श्रीकृष्ण वाणी से अतीत है, अनिर्वचनीय हैं। यश-अपयश का वर्णन वाणी से होता है और श्रीकृष्ण वाणी से अतीत हैं। कोई कहे कि चोर हैं तो कहते हैं हाँ चोर हूँ। कोई कहे कि जार हैं तो जबाब देते हैं हाँ जार हूँ। नहीं बोलना या इन्कार करना तो आता ही नहीं। किसी ने कहा कि मिट्टी खायी तो बोले हाँ खायी। फिर कहा कि मिट्टी नहीं खायी तो बोले कि नहीं खायी। एक बार तो श्रीकृष्ण पर मणि की चोरी लगा दी गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पट्टा
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज