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− | तो अब एक बात यह है कि यदि श्रम करते हैं तो थोड़ा विश्राम का भी ध्यान रखें- | + | तो अब एक बात यह है कि यदि श्रम करते हैं तो थोड़ा विश्राम का भी ध्यान रखें- ‘स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च।’ हमारे जीवन में एक ऐसा अभ्यास चाहिए, एक ऐसी दृष्टि चाहिए कि हम बिना किसी वस्तु को पकड़े भी, बिना कोई काम किये रह सकें। अपने जीवन में थोड़ा-सा समय ऐसा होना चाहिए, जब हम [[कर्म]] से, विषयों के दर्शन से निवृत्त होकर अपने स्वरूप में शान्त बैठें। जो दिन भर काम तो करता है, लेकिन जिसके जीवन में समय पर सोने की व्यवस्था नहीं, वह ठीक-ठीक काम नहीं कर सकता। श्रम के लिए विश्राम चाहिए। जब जीवन में अनेक प्रकार के उपद्रव, विक्षेप सहन करने हैं तो थोड़ा-सा समय निरुपद्रव, शान्ति के लिए भी चाहिए। अपनी दृष्टि को बहिर्मुखी होने से बचाकर थोड़ी देर शान्त होकर बैठ जाइये। सायं बराबर हो, शरीर बराबर हो और इन्द्रिय, मन, [[बुद्धि]] भी बराबर हो। जो अपने जीवन में श्रम और विश्राम दोनों को सन्तुलित रखता है, श्रम ठीक करता है, विश्राम ठीक करता है, जागता ठीक है, सोता ठीक है, व्यवस्थापूर्वक जीवन-यापन करता है, वे हमेशा मुक्त ही है, कभी आबद्ध नहीं होता। |
− | पाँचवें अध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने जो बात बतायी है, वह बहुत बढ़िया है। आप ध्यान दो- | + | पाँचवें अध्याय के अन्त में [[भगवान श्रीकृष्ण|भगवान् श्रीकृष्ण]] ने जो बात बतायी है, वह बहुत बढ़िया है। आप ध्यान दो- |
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− | + | '''भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।''' | |
− | + | '''सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥'''<ref>[[श्लोक]]-5.29</ref></poem> | |
− | शान्ति तो सबको चाहिए, उद्वेग किसी को भी पसन्द नहीं। असल में उद्वेग अपनी वस्तु नहीं, वह तो गुंडे की तरह आता है और फिर भाग जाता है। कोई भी मनुष्य चाहे कि हम केवल उद्विग्न जीवन व्यतीत करेंगे तो वह वैसा कर नहीं सकता। कोई कहे कि हम हमेशा असत्य ही बोलेंगे तो वह बोल नहीं सकता। हम एक सज्जन के घर गये। वे बोले कि ‘महाराज! मैं झूठ-झूठ बोलता हूँ।’ मैंने कहा कि आप जो इस समय बोल रहे हैं, यह क्या है? क्या यह सत्य नहीं? | + | [[शान्ति]] तो सबको चाहिए, उद्वेग किसी को भी पसन्द नहीं। असल में उद्वेग अपनी वस्तु नहीं, वह तो गुंडे की तरह आता है और फिर भाग जाता है। कोई भी मनुष्य चाहे कि हम केवल उद्विग्न जीवन व्यतीत करेंगे तो वह वैसा कर नहीं सकता। कोई कहे कि हम हमेशा असत्य ही बोलेंगे तो वह बोल नहीं सकता। हम एक सज्जन के घर गये। वे बोले कि ‘महाराज! मैं झूठ-झूठ बोलता हूँ।’ मैंने कहा कि आप जो इस समय बोल रहे हैं, यह क्या है? क्या यह [[सत्य]] नहीं? इस पर वे सज्जन चुप हो गये। यदि कोई निरन्तर झूठ बोले तो क्या होगा? यदि वह मुँह को नाक और नाक को मुँह कहेगा तो लो उसकी भाषा नोट कर लेंगे और आपस में कहेंगे कि भाई, जब यह मुँह बोले तो नाक समझना और नाक बोले तो मुँह समझना। असत्य बोलकर कोई अपना जीवन-यापन नहीं कर सकता। उसको सत्य बोलना ही पड़ेगा। इसी प्रकार किसी का जीवन निरन्तर हिंसामय नहीं हो सकता किन्तु अहिंसामय रह सकता है। चोरी का जीवन हमेशा नहीं रह सकता किन्तु साधुता का जीवन हमेशा रह सकता है। परिग्रह का जीवन हमेशा नहीं हो सकता किन्तु अपरिग्रह का जीवन हमेशा हो सकता है। यदी सद्गुण का स्वभाव है, उसी विशेषता है। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 322]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 322]] | ||
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15:58, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
तो अब एक बात यह है कि यदि श्रम करते हैं तो थोड़ा विश्राम का भी ध्यान रखें- ‘स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्च।’ हमारे जीवन में एक ऐसा अभ्यास चाहिए, एक ऐसी दृष्टि चाहिए कि हम बिना किसी वस्तु को पकड़े भी, बिना कोई काम किये रह सकें। अपने जीवन में थोड़ा-सा समय ऐसा होना चाहिए, जब हम कर्म से, विषयों के दर्शन से निवृत्त होकर अपने स्वरूप में शान्त बैठें। जो दिन भर काम तो करता है, लेकिन जिसके जीवन में समय पर सोने की व्यवस्था नहीं, वह ठीक-ठीक काम नहीं कर सकता। श्रम के लिए विश्राम चाहिए। जब जीवन में अनेक प्रकार के उपद्रव, विक्षेप सहन करने हैं तो थोड़ा-सा समय निरुपद्रव, शान्ति के लिए भी चाहिए। अपनी दृष्टि को बहिर्मुखी होने से बचाकर थोड़ी देर शान्त होकर बैठ जाइये। सायं बराबर हो, शरीर बराबर हो और इन्द्रिय, मन, बुद्धि भी बराबर हो। जो अपने जीवन में श्रम और विश्राम दोनों को सन्तुलित रखता है, श्रम ठीक करता है, विश्राम ठीक करता है, जागता ठीक है, सोता ठीक है, व्यवस्थापूर्वक जीवन-यापन करता है, वे हमेशा मुक्त ही है, कभी आबद्ध नहीं होता। पाँचवें अध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण ने जो बात बतायी है, वह बहुत बढ़िया है। आप ध्यान दो- भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । शान्ति तो सबको चाहिए, उद्वेग किसी को भी पसन्द नहीं। असल में उद्वेग अपनी वस्तु नहीं, वह तो गुंडे की तरह आता है और फिर भाग जाता है। कोई भी मनुष्य चाहे कि हम केवल उद्विग्न जीवन व्यतीत करेंगे तो वह वैसा कर नहीं सकता। कोई कहे कि हम हमेशा असत्य ही बोलेंगे तो वह बोल नहीं सकता। हम एक सज्जन के घर गये। वे बोले कि ‘महाराज! मैं झूठ-झूठ बोलता हूँ।’ मैंने कहा कि आप जो इस समय बोल रहे हैं, यह क्या है? क्या यह सत्य नहीं? इस पर वे सज्जन चुप हो गये। यदि कोई निरन्तर झूठ बोले तो क्या होगा? यदि वह मुँह को नाक और नाक को मुँह कहेगा तो लो उसकी भाषा नोट कर लेंगे और आपस में कहेंगे कि भाई, जब यह मुँह बोले तो नाक समझना और नाक बोले तो मुँह समझना। असत्य बोलकर कोई अपना जीवन-यापन नहीं कर सकता। उसको सत्य बोलना ही पड़ेगा। इसी प्रकार किसी का जीवन निरन्तर हिंसामय नहीं हो सकता किन्तु अहिंसामय रह सकता है। चोरी का जीवन हमेशा नहीं रह सकता किन्तु साधुता का जीवन हमेशा रह सकता है। परिग्रह का जीवन हमेशा नहीं हो सकता किन्तु अपरिग्रह का जीवन हमेशा हो सकता है। यदी सद्गुण का स्वभाव है, उसी विशेषता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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