गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
शान्ति आत्मधर्म है, आत्मस्वभाव है, आत्मगुण है। आप निरन्तर शान्त रहिये। अशान्ति को तो जबरदस्ती पकड़ना पड़ता है। किन्तु शान्ति के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, कुछ समझना अवश्य पड़ता है। आपको कई दिन सुना चुका हूँ कि सिर्फ समझ लेने से, जान लेने से, केवल ज्ञान मात्र से ही यह मालूम पड़े कि अमुक वस्तु हमको मिली है, तो वह ज्ञान होने के पहले अज्ञान काल में भी मिली हुई थी। वेदान्त-दर्शन का यह कहना है कि आप भूल गये हो, इसलिए अमुक वस्तु आपको नहीं मिली। वह आपकी जेब में पहले से ही थी, अब याद आने से आपको मिल गयी। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। आप परमात्मा को पहचानो, वह हमारा सुहृद् है। इसको ऐसे समझो कि किसी विद्यालय में कोई सज्जन गये। उन्होंने सब विद्यार्थियों को देखा। एक विद्यार्थी बड़ा सुन्दर, बड़ा प्रतिभाशाली लगा। उनको कोई लड़का नहीं था। उन्होंने मन में ही उसे गोद लेने का निश्चय कर लिया और विद्यालय के अध्यक्ष से कहा कि उस गरीब बच्चे के खाने-पीने-रहने आदि की सब व्यवस्था कर दो, उसका सारा खर्च हमारे यहाँ से आयेगा। जब वह लड़का पढ़-लिख लिया तब उन्होंने उसको बुलाया। वह डरने लगा कि इतने बड़े आदमी के पास मैं कैसे जाऊँ! उसको तो यह भी मालूम नहीं था कि उसका जीवन-निर्वाह कौन करता है। परन्तु जब वह गया तो उन्होंने उसको अपने बराबर बैठाया और बताया कि मैंने जिस दिन पहले-पहल तुमको देखा था, उसी दिन तुमको अपना पुत्र बना लिया था। तुम मेरे पुत्र हो। अब उस लड़के को यह ख्याल आया कि अरे, मैं तो बहुत दिनों से इनका पुत्र हूँ, आत्मीय हूँ, प्रेम-पात्र हूँ। फिर वह आनन्द में भर गया। इसी तरह हमारे भगवान हैं, परमेश्वर हैं, जो सबके सुहृद हैं, सबकी भलाई चाहते हैं। श्रीरामानुजाचार्य जी ने अपने व्याख्या में एक उदाहरण दिया है। पिता और पुत्र एक नाव से एक ही घाट पर उतरे। परन्तु बहुत दिनों से बिछुड़े होने के कारण एक दूसरे को पहचानते नहीं थे। सामान रखने में लड़ाई हो गयी। पुत्र कहे हमारा, पिता कहे हमारा। जब किसी तीसरे व्यक्ति ने जो उन दोनों को लेने के लिए आया था, उनका परस्पर परिचय कराया तब उन्हें पता चला कि वे एक दूसरे से मिलने के लिए आये हैं फिर वे आपस में मिल गये। यह कथा षड्गोपाचार्य की गीति में भी है। द्रविणाचार्य की भी यह उक्ति है। शंकराचार्य ने ठीक यही उपाख्यान ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ के भाष्य में दूसरे ढंग से लिखा है। उनका कहना है कि एक राजकुमार बचपन में चोरी चला गया था। वह डाकूओं में रहा, उन्हीं में बढ़ा। कुछ लक्षणों के आधार पर कभी पहचान लिया गया और उसे बताया गया कि तुम तो राजकुमार हो। वह राजकुमार तो पहले से ही था। उसे मालूम पड़ा और अपने राजकुमारपने का अनुभव हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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