श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण कह रहे हैं- हे लीलाशुक, इस जगत् में मेरे अतिरिक्त और भी तो बहुत सी दिव्य अदिव्य किशोरमूर्तियाँ हैं, उनमें भी तो कैशोर वयस की सफलता हो सकती है? इसके उत्तर में कहा- नहीं प्रभु, जो अन्य दिव्य किशोर मूर्तियां हैं, उनकी ऐसी रास-कुञ्जविलास आदि लीलायें दिखाई नहीं देतीं। अदिव्य कैशोर तो अस्थिर या क्षणस्थायी है, अतएव व्यर्थ है। रासलीला में गोपियों के साथ विलास करने से तुम्हारी कैशोर वयस सफल हुई है। श्रीविष्णुपुराण में देखते हैं-
श्रीमधुसूदन ने कैशोर वयस की सम्मानना कर उसे सफल करने के लिए शारदीय रात्रियों में व्रजबालाओं के साथ रासविहार किया था। श्री भक्तिसातृमसिन्धु[1] में भी लिखा है-
‘निशान्तकाल में सखियों के आगे गत रजनी की श्रीराधा की रतिकला विषयक प्रगल्भता अर्थात् अपने अंग पर नखचिह्न आदि दिखाकर और विपरीत विलास आदि के सूचक वाक्य प्रयोग कर श्रीमती को लज्जा से संकुचित नेत्रा बनाकर उनके वक्षोज पर केलिमकरी- रचना में पाण्डित्य प्रदर्शन कर रहे हैं- इस प्रकार कुञ्ज में विहारावलि रचना कर अपनी कैशोर वयस सफल कर रहे हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/1/231
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