श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
हे सखि ! एक अपरूप (दृश्य) देखा। (पदद्वयरूपी) कमलयुगल के ऊपर (नखपंक्तिरूपी) चाँद की माला। उसके ऊपर (श्यामदेहरूपी) तरुण तमाल उत्पन्न हुआ है। (पीतवस्त्र के रूप में) विद्युत लता तमालतरु को लपेटे है। वह कालिन्दी तीर पर धीर-धीरे चला जा रहा है। (हस्तद्वयरूपी) शाखाओं के (अँगुलीरूपी) शिखर पर भी (नखपंक्तिरूपी) सुधाकर पंक्ति शोभा पा रही है। उन पर अरुणिमआभा (करतलों के रूप में) नवपल्लव सुशोभित हैं। और (ओष्ठाधररूपी) विमल विम्बफलयुगल विकसित हुए हैं उनके ऊपर (नासिकारूपी) कीर (शुकपक्षी) स्थिर होकर बैठा है। और ऊपर (नेत्रयुगल के रूप में) खञ्जनयुगल तथा उससे ऊपर (मयूरपुञ्छरूपी) मोर (साँपिनरूपी) केश-पाश को आच्छादित कर रहा है। अरी सखि !
‘इस विश्व में भूरि-भूरि रमणीय वस्तुएं हैं, हुआ करें, किन्तु मेरा यही प्रार्थनीय है- ऐसे निश्चय को पण्डितगण ‘अभिमान’ कहते हैं।’ पूर्वराग की दशा में प्रेम-परीक्षा लेने वाली नान्दीमुखी के प्रति श्रीराधा की उक्ति-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उ. नी. स्थायिभाव
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